संदेश

 

संख्या: 14

 

प्यारी साध संगत जी,

वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरू जी की फतेह |

इस अंक में हम "लंगर" पर चर्चा करेंगे।

लंगर  

सिक्खी में लंगर की प्रथा का मतलब है गुरू का लंगर । महान कोश के अनुसार लंगर का मतलब है - रसोई का घर : वो जगह जहाँ पर खाना बनाया जाता है। भाई काहन सिंह और कपूर सिंह के मुताबिक लंगर शब्द संस्कृत के शब्द "अनलग्रह" से बना है जिसका मतलब होता है रसोई का घर । लेकिन पुराने ज़माने से ही रसोई में बने खाने को लंगर कहा जाता है। वैसे लंगर एक persian, ईरानी शब्द है और इसका मतलब होता है "an alms house " यानि कि “भिक्षा का घर”; गरीबों और बेसहारों के लिए पनाह की जगह; सूफी संतों और महापुरूषों के द्वारा अपने शिष्यों, अनुयायियों, धार्मिक लोगों, गरीबों और ज़रूरतमंद लोगों के लिए चलाई जाने वाली एक सार्वजनिक और सामूहिक रसोई। Persian और उर्दू dictionaries, शब्दकोशों के अलावा persian literature, साहित्य में भी लंगर का ज़िक्र किया गया है। बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में सूफी संतों के द्वारा चलाए गये लंगर बहुत मशहूर थे। आज भी सूफी स्थानों जैसे कि अजमेर में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती जी के स्थान पर लंगर बहुत प्रचलित है।

सिख धर्म में लंगर की नींव गुरू नानकदेव जी महाराज ने उस दिन रखी थी जिस दिन उन्होंने पिता कालू मेहता के दिए गये 20 रूपयों से कोई काम-धन्धा तो शुरू नहीं किया बल्कि उन पैसों से उन्होंने साधू-महात्माओं को खाना खिला दिया। गुरू नानकदेव जी महाराज ने अपनी उदासियों के दौरान कई धर्मसालें (सच्चाई, दान-पुण्य, भक्ति और सेवा के स्थान) बनवाई और वहाँ पर लंगर चलवाए। गुरू नानकदेव जी महाराज ने सिख धर्म के तीन सुनहरे नियम बनाये जो सिख धर्म की नींव हैं और वो हैं "किरत करना, वंड छकना और नाम जपना" । सच्चाई और ईमानदारी से अपनी जीविका चलाना; उस ईमानदारी और हलाल की कमाई में से दान-पुण्य करना, दूसरों की मदद और सेवा करना और मिल बाँट कर भोजन करना; और ईश्वर का सिमरन करना । हम सब जानते हैं ईमानदारी और हलाल की कमाई से कमाया और छका हुआ खाना इंसान के शरीर को तन्दुरूस्त और मन को शुद्ध कर देता है। बाँटने से इंसान के अंदर सेवा की भावना पैदा होती है जो उसके मन को शांत और बुद्धि को निर्मल कर देती है। तन्दुरूस्त शरीर, शुद्ध और शांत मन और निर्मल बुद्धि पूजा-पाठ और सिमरन के लिए बहुत जरूरी है। कहावत भी है जैसा अन्न वैसा मन, जैसा पानी वैसी वाणी। भाई पूरण सिंह का कहना है कि langar is a temple of bread for poor, needy and destitute यानि कि लंगर गरीबों, मजबूरों, ज़रूरतमंदों और बेसहारों के लिए भोजन का मन्दिर है। जहाँ पर भी ईश्वर और गुरू महाराज जी का नाम लिया जाता है वहाँ पर कोई भी भूखा नहीं रहना चाहिए इसलिए सिख धर्म में लंगर की शुरूआत हुई। यह गुरू नानकदेव जी महाराज द्वारा हमारे लिए बनाया गया पहला मन्दिर है। गुरू नानकदेव जी महाराज एक बहुत ही सुलझे हुए, ऊँचे और महान समाज सुधारक थे और उनकी सोच और करनी हम लोगों से कई सौ साल आगे थी। उन्होंने लंगर की शुरूआत सिर्फ गरीबों की मदद या पेट की भूख मात्र मिटाने के लिए ही नहीं की थी। उनके बाद भी सभी गुरु साहिबान ने इसका बढ़-चढ़ कर विस्तार किया और इसे सिख धर्म का एक अटूट हिस्सा इसलिए बनाया कि यह एक बहुत ही पवित्र और ऊँची सेवा है। गुरू महाराज जी ने लंगर के द्वारा हिन्दुस्तान में एक नई सामाजिक व्यवस्था और एक आदर्श समाज को जन्म दिया और सिख धर्म की नींव रख दी। लंगर की प्रथा ने :

1. धर्म, जाति, रंग, वर्ण, लिंग, उम्र आदि के फर्क को; उस समय की भेद-भाव वाली नीतियों, सामाजिक व्यवस्था और कर्म-काण्डों से भरे रीति-रिवाजों को बुरी तरह से हिलाकर रख दिया और इन सबसे ऊपर उठकर सिख धर्म को एक आदर्श धर्म के रूप में स्थापित किया।

2. लंगर ने अमीर और गरीब, राजा और भिखारी, आस्तिक और नास्तिक, छूत और अछूत सभी को एक समान दर्जा प्रदान किया। It acted as a fair leveler and equalizer in the society.

3. लंगर ने दर्शाया कि सभी इंसान एक ही ईश्वर की औलाद हैं।

4. लंगर से एकता, आपसी सहयोग और अनुशासन की भावना पैदा हुई जिसने सिक्खों को मज़बूत और ताकतवर बना दिया।

लंगर के अन्य फायदे :

5. लंगर साथ चलकर और रहकर, मिल-बाँटकर जिंदगी बिताने की भावना को पैदा करता है।

6. लंगर इंसान के अंदर सेवा भाव को बढ़ाता है।

7. लंगर प्यार, भाईचारे और सद्भावना को बढ़ाता है।

8. लंगर से शालीनता, निमरता और दीनता की भावना पैदा होती है जो इंसान की रूहानी तरक्की के लिए बहुत ज़रूरी है।

9. लंगर में सेवा करने से और एक ही पंगत में बैठकर लंगर छकने से ego, अहम का नाश होता है।

10. लंगर औरतों और बच्चों को सेवा करने का और आदमियों के बराबर खड़ा होने का एक मज़बूत platform, मंच प्रदान करता है।

11. यह non-sikhs (जो सिख धर्म को नहीं मानते) के लिए भी समानता, विश्वास और निश्चिंतता का प्रतीक है ।

गुरू नानकदेव जी महाराज ने लंगर की मर्यादा आज से तकरीबन 500 साल पहले शुरू की और आज दुनिया के हर कोने में जहाँ-जहाँ पर भी सिख धर्म को मानने वाले अनुयायी और संगत हैं वहाँ पर लंगर का होना निश्चित है। आज लंगर सिख धर्म की पहचान बन चुका है। गुरू नानकदेव जी महाराज ने अपने जीवन काल में ही लंगर का काफी प्रचलन किया। सज्जन ठग ने उनके उपदेश और हुक्म से ही अपनी जिंदगी बदल दी और अपनी सराय को एक धर्मसाल बनाकर एक मिसाल कायम की। हिन्दुस्तान के बाहर बसे राजा शिवनाभ को भी गुरू नानकदेव जी महाराज ने एक धर्मसाल बनाने और लंगर चलाने का हुक्म दिया जो कि कई सौ साल तक चलता रहा। उदासियों के बाद गुरु नानकदेव जी महाराज करतारपुर में जा बसे और आखिर तक वहीं पर रहे। उन्होंने अपने घर को एक धर्मसाल में तब्दील कर उसे ईश्वर का घर और लंगर का स्थान बनाकर संगत और पंगत की शुरूआत की। संगत का मतलब है अच्छे, शालीन, भक्तगण, भद्र लोगों का समूह और एकत्रीकरण। पंगत का मतलब है कतार या पंक्ति; बिना ऊँच-नीच, जाति-पाति या किसी भी तरह के भेदभाव के एक कतार, line में एक साथ बैठकर लंगर छकना। गुरू नानकदेव जी महाराज खेतों में काम करते और सारी फसल लंगर में लगा देते। उनके बाद सभी गुरु साहिबान ने लंगर की प्रथा और मर्यादा को लगातार बढ़ाया और इसको बेहद मज़बूती और अहमियत बख़्शी। गुरु अमरदास जी महाराज ने लंगर को नया मुकाम दिया। उन्होंने पंगत को बहुत अहमियत दी और "पहले पंगत और पिछे संगत" की मर्यादा कायम की। उन्होंने हुक्म दिया कि पहले सभी पंगत में बैठकर लंगर छकें और बाद में वह दर्शन देंगे। बादशाह अकबर जब गुरु अमरदास जी महाराज के दर्शन करने के लिए गोइन्दवाल साहिब पहुँचा तो उसे भी दर्शनों से पहले पंगत में बैठकर लंगर करने का हुक्म हुआ जिसकी उसने पालना की। इसी तरह जब हरीपुर का राजा भी महाराज जी के दर्शन करने पहुँचा तो उसने भी पहले अपनी रानियों के साथ पंगत में बैठकर लंगर छका। पंडित माई दास जो कि भगवान श्री कृष्ण को मानने वाला था जब वह गुरू महाराज जी के दर्शनों के लिए पहुँचा तो उसे भी दर्शन से पहले लंगर करने का हुक्म हुआ। माई दास श्री कृष्ण भगवान का भक्त था और वैष्णव मत का कट्टर अनुयायी होने की वजह से बिना लंगर किए और बिना गुरु अमरदास जी महाराज के दर्शनों के वापिस चला गया। उदासी की हालत में वह द्वारका चल पड़ा और रास्ते में खराब मौसम में जंगल में खाना न मिलने पर और व्रत न टूटने पर भगवान ने उसे मनचाहा खाना तो दे दिया लेकिन उसके लाख पुकारने पर भी उसे दर्शन नहीं दिए। उसके बहुत बिलखने और पुकारने पर उसे आकाशवाणी सुनाई दी कि चूँकि उसने गुरू महाराज जी का लंगर नहीं छका और दर्शन नहीं किए इसलिए उसे कभी-भी पूर्णता प्राप्त नहीं होगी यानि कि ईश्वर की प्राप्ति नहीं होगी। वह वहाँ से सीधा गोइन्दवाल साहिब पहुँचा, लंगर छका और महाराज जी के दर्शन किए। गुरू महाराज जी ने उसे बहुत प्यार और इज़्ज़त बख़्शी और आने वाले वक्त में उसे 22 में से एक मँजी बख़्श कर नाम और सिक्खी से नवाज़ा। गुरू अर्जनदेव जी महाराज का काबुल से आ रही थकी हुई संगत के लिए माता गंगाजी से लंगर बनवाना और फिर उनके साथ लंगर को सिर पर रखकर संगत की ठहरने वाली जगह तक नंगे पैर चलकर जाना और संगत को लंगर छकाना और उनकी सेवा करना; माता गंगाजी को बेटे की प्राप्ति के लिए युक्ति बताना कि वो खुद अपने हाथों से मर्यादापूर्वक लंगर बनाऐं और लंगर को सिर पर रखकर निमाणी बनकर नंगे पैर चलकर बाबा बुड्ढा जी के स्थान पर जाकर उन्हें लंगर छकाएँ और उसका नतीजा और फल हम सब जानते हैं गुरू हरगोबिन्द साहिब जी महाराज का जन्म। गुरू गोबिन्द सिंह जी महाराज ने रात को भेष बदल कर कई सेवादारों के लंगर में जाकर उनका मुआयना करके फिर भाई नन्दलाल जी को शाबाशी देकर लंगर की मर्यादाओं को बहुत ऊँचे मुकाम पर पहुँचा दिया। उनके द्वारा रचित और उच्चारित शब्द "देग तेग फतेह" हर सिक्ख की जिंदगी का आदर्श बन चुके हैं। देग यानि कि लंगर और सेवाभाव, तेग यानि कि शमशीर, ताकत और आन को दर्शाते हैं। इसका मतलब है हमारे लंगर और आन बनी रहें और हमारी सेवा और ताकत हमेशा विजयी हो ।

प्यारी साध संगत जी, लंगर हमारी जिंदगी का एक अटूट हिस्सा बन चुका है। एक कहावत है कि रोटी और पानी वाहेगुरू के अधीन हैं, यह उसकी सम्पत्ति हैं लेकिन उसको बाँटना और परोसना (serve करना) हर सिक्ख का फर्ज़ है, धर्म है और खुशनसीबी भी है। मैं कोटि-कोटि शुक्र गुजार हूँ लंगर का, इस प्रथा का जिसके कारण लाखों लोगों की सेवा करने का मौका मिलता है। लंगर के लिए अपनी शुद्ध 'और पवित्र कमाई में से नकदी (cash) दान करना; लंगर के लिए रसद, कच्ची सामग्री देना; रसद खरीदना और उसकी storage, भण्डारण और संभाल करना; लंगर बनाने से पहले रसद की सफाई आदि करना; लंगर बनाने से पहले हर ज़रूरी सामान जैसे कि रसद, बरतन, ईंधन आदि इकट्ठा करना; लंगर बनाना; उसे बाँटना; बरतन साफ करना; लंगर वाली जगह की सफाई करना आदि अनेकों सेवाऐं लंगर की सेवा से उत्पन्न होती हैं और अनगिनत लोगों को सेवा का मौका मिलता है। लंगर की कुछ मर्यादाऐं हैं जो हमें हमेशा याद रखनी चाहिऐं। लंगर सादा, शुद्ध और शाकाहारी (vegetarian) होना चाहिए; लंगर बनाते वक्त सेवादारों को बिल्कुल सचेत और सतर्क रहना चाहिए; लंगर बनाने और बाँटने से पहले अरदास करनी चाहिए और हो सके तो लंगर पूरा हो जाने के बाद भी शुक्राने की अरदास करनी चाहिए; बाँटते वक्त पंगत में भूल कर भी कोई भेद-भाव, फर्क नहीं करना चाहिए और हो सके तो सेवादारों को लंगर बनाते और बाँटते वक्त गुरवाणी का उच्चारण, सिमरन और पाठ करना चाहिए। याद रखें श्रद्धा और निमरता से बनाया और बाँटा हुआ लंगर सेवादारों के लिए और आस्था के साथ छका गया लंगर संगत के लिए बहुत उतम और फायदेमंद होता है। किसी समझदार इंसान ने बहुत खूब कहा है कि सत्संग का एक भी क्षण (पल) और लंगर का एक भी कण (रत्ती भर) कभी भी खराब नहीं करना चाहिए। लंगर गुरू महाराज जी का प्रसाद है और ध्यान रखिए कि लंगर को कभी भी झूठा नहीं छोड़ना चाहिए और न ही इसको खराब करना चाहिए ।

सति सांवल शाह जी महाराज ने जब डेरा इस्माईल खाँ में अपनी गद्दी स्थापित की तब से लेकर मुल्क के बँटवारे तक वहाँ पर लगातार लंगर चलता रहा। राजा रणजीत सिंह जब हमारे पूर्वजों के दर्शन करने डेरा इस्माईल खाँ गए तो उन्होंने लंगर को चलाने और बढ़ाने के लिए 17000 वर्ग एकड़ ज़मीन हमारे गुरूघर को भेंट की। बँटवारे के बाद सति सांवल शाह जी महाराज की गद्दी अलवर (राजस्थान) में स्थापित की गई और तब से लेकर आज तक गुरू महाराज जी की कृपा से हमारे गुरूघर में लंगर बहुत ही कामयाबी और मर्यादा के साथ लगातार चलता आ रहा है। अलवर और रूड़की में हमारे गुरस्थानों पर संग्राँद, पूर्णमासी और अमावस पर, हर गुरपुरब पर, हर यज्ञ साहिब पर व इनके अलावा कई और त्यौहारों और मौकों पर लंगर की मर्यादा बखूबी कायम है।

लंगर में गुरू महाराज जी की खुशी और मेहर बरसती है। गुरू रामदास जी महाराज फरमाते हैं :

माता प्रीति करे पुत खाइ ।

मीने प्रीति भई जल नाइ ।

सतिगुर प्रीति गुरसिख मुखि पाइ ।

(श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी)

आखिर में मैं कहूँगा कि आप सब संगत और पंगत दोनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लें। संगत है आत्मा का शब्द रूपी लंगर। गुरवाणी फरमान करती है :

लंगरु चलै गुर सबदि हरि तोटि न आवी खटीऐ ।

(श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी)

पंगत है निमरता से भरकर, निमाणे होकर सबके साथ मिलकर भोजन रूपी लंगर छकना। मैं श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी महाराज से अरदास करता हूँ कि पूरी दुनिया में अनन्त काल तक गुरू महाराज जी की रसोई रूपी लंगर और शब्द रूपी लंगर हमेशा चड़दी कला में रहें और सरबत का भला हो।

 

वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह।
गुरसंगत का दास
संतरेन डाॅ० हरभजन शाह सिंघ, गद्दी नशीन