संदेश

 

संख्या: 3

 

प्यारी साध संगत जी,

वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह।

पिछले अंक से आगे बढ़ते हुए इस अंक में हम "सिमरन " पर चर्चा करेंगे।

सिमरन  

होश सम्भालने से अब तक, हर समय हम यही सुनते आ रहे हैं कि सिमरन ही ईश्वर की, गुरू महाराज की व मोक्ष की प्राप्ति का एकमात्र रास्ता है, सीढ़ी है, तरीका है। आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का, हृदय रूपी हरिमंदर से सचखंड तक की यात्रा का साधन है सिमरन । आखिर "सिमरन" है क्या ? सिमरन पंजाबी का एक शब्द है जो संस्कृत के शब्द "स्मरण" से बना है। स्मरण का अर्थ है याद करना। किसी भी बात और विषय को अपने दिमाग और दिल में बनाये रखना, उसके बारे में सोचना, ख्याल या विचार करना, उसके बारे में बात या चर्चा करना ही उसको याद करना अथवा स्मरण करना है। इंसान का दिमाग चौबिसों घंटे, चाहे वह खाली हो या काम कर रहा हो, जाग रहा हो या सो रहा हो कुछ ना कुछ सोचता या स्मरण करता रहता है। मिसाल के तौर पर एक घरेलू औरत अपने घर, पति व बच्चों के बारे में; एक किसान अपने खेतों और फसल के बारे में; दुकानदार अपनी दुकान व ग्राहकों के बारे में; साहूकार अपनी सम्पत्ति के बारे में व एक शिक्षक अपने ज्ञान और छात्रों के बारे में हमेशा स्मरण करते रहते हैं। यहां तक कि कई बार पशु पक्षी भी जैसे कि गाय, बिल्ली, चिड़िया आदि अपने नवजात शिशुओं के स्मरण में पाये व देखे जाते हैं और जब इसी स्मरण को, याद को, विचार को अथवा सोच को परमपिता परमेश्वर की तरफ मोड़ दिया जाता है तो वह सिमरन बन जाती है। हमारे सिक्ख धर्म में ईश्वर या गुरू महाराज को स्मरण करना, उन्हें याद करना, उनका विचार, चिन्तन अथवा मनन करना ही सिमरन है ।

 

बहुत से मतों व लोगों का यह मानना व कहना है कि मन्त्र जाप या नाम जाप ही सिमरन है। लेकिन ऐसे मन्त्र या नाम जाप का कोई फायदा नहीं है जिससे मन में कोई अनुभूति या रुहानी विचार उत्पन्न न हो, कोई रुहानी चेतना न हो, बल्कि प्रभु की याद का कोई भी तरीका, चाहे वह उच्चारण यानि कि बोलकर, श्रवण यानि कि सुनकर अथवा गायन के माध्यम से हो, जो भी इंसान को ईश्वर व गुरू महाराज जी से एकाकर कर दे वह सिमरन है । गुरू महाराज जी फरमाते हैं कि गुरबाणी नाम है। क्योंकि गुरबाणी पढ़ने व सुनने से भी नाम का ख्याल या विचार उत्पन्न होता है, नाम का ज्ञान होता है इसलिए पाठ एवं गुरबाणी का उच्चारण करना, सुनना या गायन करना भी सिमरन की ही स्थिति है। कुछ लोगों का तो यह भी मत है कि गुरबाणी का पढ़ना, उच्चारण करना, सुनना व गायन करना मन्त्र या नाम जाप से ज्यादा प्रभावशाली है क्योंकि गुरबाणी इंसान को न सिर्फ ईश्वर से जोड़ती है बल्कि इस अंधेरे कलयुग में वह इंसान के रोज़मर्रा जीवन का भी सशक्त मार्गदर्शन कर उसका बचाव व मदद करती है। कहने का मतलब है कि आज के इस शोर भरे, दिशारहित अंधाधुंध दौड़ते हुए जीवन में मन्त्र, नाम या गुरबाणी जिसके भी पढ़ने, सुनने, उच्चारण या गायन करने से इंसान को वह रास्ता मिलता है जिस पर चलते हुए, वह ईश्वर की तरफ अग्रसर हो जाये, उसकी प्राप्ति कर सके वह सिमरन है।

 

जन्म लेते ही हमारी आत्मा जो परमपिता परमात्मा का एक बहुत ही छोटा सा अंश है उससे अलग हो जाती है व माया के जाल में पड़कर अपने असल रूप को भूल जाती है। माया जन्म देती है तृष्णाओं और विकारों को। तृष्णाऐं और विकार इंसान को ऐसा फंसाते हैं कि वह उन्हीं में फंसकर अपना अनमोल जीवन खराब व खत्म कर देता है। लेकिन सिमरन ही वह माध्यम है जो माया के सारे बँधन खोलकर उनका नाश कर देता है। सिमरन से मन की मैल दूर होती है, मन और दिमाग शांत हो जाते हैं। हृदय, मति और विचार शुद्ध और पवित्र हो जाते हैं। पाप, कष्ट, रोग और संचित कर्मों का नाश होता है। जन्म-मरन के चक्रव्यूह, विकारों व नकारात्मक सोच का अन्त होता है। इंसान को असीम सुख व शांति की प्राप्ति होती है। सिमरन के द्वारा ही ध्रुव व प्रहलाद ने छोटी सी उमर में ही ईश्वर की प्राप्ति की; वाल्मिकी अपने भयानक अतीत से हटकर महर्षि बन गये; बाबा दीप सिंह जी, बाबा फरीद जी और कबीर दास जी हमेशा के लिए अमर हो गये। सिमरन इंसान के अंदर इतनी शक्ति और बल उत्पन्न कर देता है कि वह बड़े से बड़ा मानसिक व शारीरिक कष्ट भी आराम से, बिना उफ़ किए सह सकता । इसकी जीती जागती मिसाल हैं भाई दयाला जी, भाई मती दास जी, भाई तारू सिंह जी व भाई मनी सिंह जी, जिनको उबलती देगें, आग, आरे और तलवारें ज़रा भी डरा नहीं पाईं। उन्हें शारीरिक कष्ट व दुख तो ज़रूर पहुँचा होगा लेकिन सिमरन की शक्ति के सामने वह कष्ट और दुख कुछ भी न कर पाये। इसलिए अपनी आन्तरिक व आत्मिक शक्ति को जगाने के लिए भी सिमरन करना जरूरी है। सिमरन ईश्वर को अपने पास खींचने का एक बहुत सरल और सशक्त माध्यम है। जैसे एक भिखारी किसी घर के बाहर आवाज़ लगाकर घरवालों का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है वैसे ही इंसान की सिमरन रूपी गुहार लगने से ईश्वर एक न एक दिन उसकी तरफ आकर्षित हो ही जाते हैं। जब वह मुसीबत में पड़े गजराज, प्रहलाद व द्रोपदी की गुहार से पसीज गये व उनकी रक्षा और मदद के लिए दौड़े चले आये तो नित्य प्रति सिमरन करने वाला इंसान उनको कितना प्रिय होगा इसका अंदाज़ा आप सब लगा सकते हैं।

 

सिमरन करने के लिए इंसान को साफ-सुथरा, मेहनती व सावधानी से भरा हुआ जीवन जीना चाहिए और इस तरह का जीवन स्वस्थ शरीर के बिना संभव नहीं है। इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि इंसान का खाना-पीना, सोना, रख-रखाव, व्यवहार आदि अच्छा और साफ-सुथरा हो। ऐसे कोई भी कारण या साधन जो शरीर या दिमाग में विकार उत्पन्न करें उनसे सावधान व दूर रहना चाहिए। इसके अलावा सिमरन के लिए ज़रूरी है अनुशासन यानि कि Discipline । सिमरन करने के लिए रोज़ाना बिना नागा अभ्यास करना बहुत ज़रूरी है । अभ्यास का मतलब है अमृत वेले जागना, स्नान आदि करके दिल और दिमाग को दुनियावी ख्यालों से दूर रखने की कोशिश करते हुए नियमित रूप से शांतचित्त होकर सिमरन करना। अनुशासित इंसान कभी भी किसी भी हालात में अभ्यास नहीं छोड़ता । अनुशासित जीवन संयम और नियम का आधार है। जिस पर सिमरन रूपी पौधा बहुत ही जल्दी विशाल वृक्ष का रूप ले लेता है और सिमरन की जड़ों को मज़बूती देने के लिए आखिर में ज़रूरत है अटूट और अखंड विश्वास की। जिस ईश्वर, जिस गुरू या मालिक का हम सिमरन करते हैं उसकी अथाह ताकत, गुणों और स्वरूप पर इंसान को दृढ़ विश्वास होना चाहिए। आप गौर करें तो पाऐंगे कि जो जीवन शैली व आचरण नियम हमने अपनी गुरसंगत के लिए निर्धारित किए हैं अगर आप उनका अनुशासित व नियमित रूप से अनुसरण व आचरण करें तो सिमरन करना बहुत ही सरल व सहज प्रतीत होगा। गुरमुख जीवन जीने के लिए इंसान को नियमित रूप से सिमरन का अभ्यास करते हुए, गृहस्थ जीवन में किरत के साथ-साथ ज़्यादा से ज़्यादा समय ईश्वर व अपने गुरू के ध्यान में लगाना चाहिए जैसे कि भगत रविदास जी व कबीर दास जी ने किया। कबीर दास जी कहते हैं कि सिमरन ऐसे करो जैसे कि नदी या तालाब से पानी के भरे हुए, एक साथ कई मटके सर पर लाती हुई गांव की औरतें । वे आपस में मज़ाक व बातें तो करती हैं लेकिन उनका ध्यान सर पर रखे हुए पानी से भरे मटकों से एक क्षण के लिए भी नहीं हटता। ठीक उसी तरह जिंदगी के हर पहलू में, हर काम को करते हुए हमारा मन, दिमाग, सोच और विचार सिमरन में ही होना चाहिए। कबीर दास जी कहते हैं कि अपने प्रीतम के सिमरन की इतनी चाह रखो जितना मृग नाद के स्वर से, मछली पानी से व पतंगा आग के स्पर्श से मोह रखता है। आखिर में मैं यही कहूँगा कि ईश्वर व उनका नाम, दोनों ही हमारे अंदर मौजूद हैं। ज़रूरत है तो सिर्फ सिमरन की, जो इस विकारों से भरे तन व मन को हरिमंदर में परिवर्तित कर सकता है। सिमरन की महिमा अपरम्पार है। गुरू महाराज जी फरमाते हैं :

“सिमरउ सिमरि सिमरि सुखु पावउ, कलि कलेस तन माहि मिटावउ "

"प्रभ कै सिमरन कालु परहरै, प्रभ कै सिमरनि दुसमनु टरै"

"प्रभ कै सिमरनि रिधि सिधि नउ निधि, प्रभ कै सिमरनि गिआनु धिआनु ततु बुधि"

"प्रभ कै सिमरनि मन की मलु जाइ, अं¬¬म्रित नामु रिद माहि समाइ"



सेवा और सिमरन दोनों ही हमारे जीवन के लिए बहुत ज़रूरी हैं। सेवा और सिमरन इंसान को परमपिता परमेश्वर से मिलाने वाले दो मुख्य रास्ते हैं जो एक दूसरे के पूरक भी हैं। ये पक्षी के उन दो पंखों की तरह हैं जिनके बिना वह उड़ नहीं सकता। ठीक उसी तरह एक गुरमुख को भी सेवा व सिमरन, दोनों का ही अनुसरण करते हुए ईश्वरीय राह पर आगे बढ़ना होता है। सेवा के बिना सिमरन व सिमरन के बगैर की गयी सेवा, दोनों ही परिस्थितियाँ अहँकार को जन्म देती हैं। अहँकार माया का वो सबसे प्रबल हथियार है जो क्षण मात्र में एक सेवादार की समस्त सेवा व एक अभ्यासी के समस्त सिमरन को कमज़ोर व निष्फल कर सकता है। अतः हर सेवादार का नियमित रूप से सिमरन करना व हर पाठी व अभ्यासी का नियमित रूप से सेवा करना अनिवार्य है। उम्मीद करता हूँ कि आप सब बढ़-चढ़ कर सेवा व सिमरन करेंगे और गुरू महाराज जी की खुशियों के पात्र बनेंगे ।

वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह।
गुरसंगत का दास
संतरेन डाॅ० हरभजन शाह सिंघ, गद्दी नशीन