संदेश

 

संख्या: 7

 

प्यारी साध संगत जी,

वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह।

इस अंक में मैं आपसे "गुरू, शिष्य और उनके संबंधों" पर अपने विचार सांझे करूंगा।

गुरू, शिष्य और उनके संबंध  

कहते हैं गुरू बह्मा है, विष्णु है, महेश है, वास्तव में गुरू ही साक्षात् पारब्रह्म अर्थात् ईश्वर है। गुरू के बिना कोई भी समाज, धर्म और सभ्यता पूरी नहीं है। गुरु संस्कृत का एक शब्द है जिसका अर्थ है - आचार्य, guide (मार्गदर्शक), mentor (परामर्शदाता), master. गुरु शब्द दो अक्षरों से बना है, 'गु' का मतलब है अंधेरा, अंधकार, अज्ञान और 'रू' का मतलब है प्रकाश, रोशनी, ज्ञान। अज्ञान रूपी अंधेरे का नाश करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है वह गुरू है। गुरू का एक मतलब है भारी, heavy, weighty यानि कि ज्ञान, विवेक, अकलमंदी और गंभीरता से भरा हुआ। अंग्रेज़ी में गुरू का एक मतलब अध्यापक या शिक्षक भी होता है। लेकिन हमारी संस्कृति में गुरू शिष्य का संबंध अध्यापक और विद्यार्थी से बहुत ऊँचा और कहीं ज़्यादा पवित्र और मर्यादाओं से भरा हुआ माना जाता है। गुरू शिक्षक भी होता है, मार्गदर्शक और सलाहकार भी होता है, शिष्य के मन, बुद्धि और आत्मा का custodian (देखभाल करने वाला) भी होता है, उसके नैतिक सिद्धांतों (moral values) और संस्कारों का पालक भी होता है और उसके मानसिक, आध्यात्मिक, धार्मिक और आत्मिक विकास का आधार भी होता है। गुरू समाज, धर्म और देश के लिए, राजा, प्रजा, नेता, हर वर्ग, खास और हर आम आदमी के लिए भी आदर्श और प्रेरणा का, नई सोच का, बदलाव का स्रोत (source) है, ईश्वरीय मार्ग पर ले जाने वाला व ईश्वर प्राप्ति का साधन भी है। गुरू ज्ञान, प्रकाश, आदर्श और मानवता की वह नींव है जो आदिकाल से आज तक अडिग रूप से कायम है और आने वाले समय में भी गुरू और उसका योगदान सभ्यता और मानवता के विकास में सबसे आगे रहेगा। भगवान शिव और विष्णु दुनिया के सबसे पहले गुरू माने जाते हैं लेकिन इन्सानी जामे में सबसे पहले गुरू हुए हैं महर्षि वेद व्यास। यही कारण है कि उनकी जयन्ती को पूरी दुनिया के गुरुओं को समर्पित कर उसे गुरू पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के रूप में बहुत ही पवित्र और भव्य रूप से मनाया जाता है।

 

शिष्य यानि कि pupil, छात्र, चेला, अनुयायी, सिक्ख, हर वह शख़्स जो ज्ञान के लिए, प्रकाश के लिए, कुछ सीखने के लिए अपना सबकुछ गुरू पर न्यौछावर कर दे। अपना तन, मन, बुद्धि और आत्मा सहित धन, वस्तु और हर अधिकार गुरू को समर्पित (surrender) कर दे। शिष्य संस्कृत के शब्द "सिस्य" से बना है। शिष्य के बिना गुरू अधूरा है। गुरु और शिष्य inseperable (अलग न किये जाने वाले) हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। हमारे देश में गुरू शिष्य का यह अटूट बंधन उस काल से भी पहले से चला आ रहा है जब उपनिषद मौखिक (oral) रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दिये जाते थे। उपनिषद संस्कृत के शब्द 'उप' यानि कि नज़दीक (near), 'नि' यानि कि नीचे (down) और 'सद' यानि कि बैठना (to sit) से बना है जिसका पूरा मतलब है नीचे होकर नज़दीक बैठना अर्थात् शिष्य वो शख़्स है जो गुरू के सामने झुक कर रहे व उनके आसन से नीचे स्थान पर बैठे। प्यारी साध संगत जी, यही कारण है कि हमें हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि हर स्थिति में हम श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी महाराज की हजूरी में झुक कर रहें और नीचे ही बैठें और सिर्फ किसी मज़बूरी या तकलीफ में ही ऐसा आसन ग्रहण करें जो गुरू महाराज जी के आसन से नीचा हो।

 

सच्चा गुरु कौन है ? जो महफिल को रोशन करें वो शमां तो बहुत हैं लेकिन जो चिराग ज्ञान और सच्चाई के प्रकाश से लोगों का जीवन बदल दे बहुत कम हैं; वेद, पुराणों, ग्रन्थों के ज्ञानी और वक्ता तो बहुत हैं लेकिन जो ईश्वर तक ले जाये और उससे मिला दे वह गुरू आसानी से नहीं मिलते; पैसे और शोहरत के पीछे दौड़ने वाले महात्मा तो बहुत हैं लेकिन शिष्यों के दर्द और विकारों को दूर कर दें ऐसे सदगुरू कहाँ हैं ? हर व्यक्ति को चाहिए कि बहुत सोच समझकर गुरू धारण करे। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने बहुत कोशिश की कि नरेंद्र (स्वामी विवेकानन्द) मेरा शिष्य बन जाये क्योंकि वह उसकी प्रतिभा और अहमियत को पहचानते थे। लेकिन स्वामी विवेकानन्द जो बहुत बुद्धिमान थे शुरू में वह स्वामी रामकृष्ण परमहंस को सिर्फ एक मूर्तिपूजक और उनकी सिद्धियों को मात्र एक बाज़ीगर का चमत्कार ही मानते थे, वह भी उनकी असलियत को जानकर ही उनके चरणों में झुके और उन्हें अपना गुरू स्वीकार किया। सच्चा गुरू प्रेम, शान्ति, दया, सहनशीलता, आत्मनियंत्रण और ईश्वरीय ज्ञान का महासागर होता है। विषय-विकारों, पक्षपात से दूर, पूरी तरह से निःस्वार्थ व हमेशा सच का साथ देने वाला होता है। नम्रता और संस्कारों से भरपूर सादा जीवन और ऊँचे विचार उसके आदर्श होते हैं। दीन दुनिया के दुःखों को परखना और सही शिष्य का चुनाव करना उसे बहुत अच्छी तरह से आता है। धर्म की रक्षा और सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए वह हमेशा तैयार रहता है। अपने शिष्यों और अनुयायियों (followers) को साफ सुधरा आदर्शों से भरा हुआ जीवन जीने के लिए प्रेरित करना और ईश्वर की तरफ उन्हें बढ़ाना ही उसका ही उसका परम कर्तव्य होता है। स्वामी विवेकानन्द का कहना था कि आज के युग में बहुत से पाखन्डी गुरूओं का रूप धारण किए बैठे हैं। सच्चा गुरु चरित्रवान और मर्यादाओं से भरपूर, पाप कर्मों और दुनिया की चकाचौंध से दूर रहने वाला होता है। दलाई लामा का भी कहना है कि एक भावी शिष्य को भी गुरू धारण करने से पहले उसकी नैतिकता, आदर्शों, शिक्षाओं और अन्य पहलुओं का अच्छी तरह से पता लगाना चाहिए। सच्चा गुरू शिष्य की मानसिक और आत्मिक अवस्था के अनुसार ही उसकी शिक्षा-दीक्षा करता है। उसे जाति-पाति, वर्ण (class) या लिंग (gender) से कोई मतलब नहीं होता। शिष्य को एक अच्छा, पढ़ा-लिखा ज़िम्मेदार इंसान और ईमानदार नागरिक बनाना, उसे ऐसी ईश्वरीय राह पर चलाना जिस पर उसके विकारों और संचित कर्मों का नाश हो, उसका आत्मिक और आध्यात्मिक विकास हो और आखिर में उसे जीवन मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिले यही एक सच्चे गुरू का लक्ष्य होता है।

गुर बिनु घोरु अंधारु गुरू बिनु समझ न आवै ।

गुर बिनु सुरति न सिधि गुरु बिनु मुकति न पावै।।

 

गुरू के बिना ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती। भक्त नामदेव जी जिनको भगवान विठ्ठल के बचपन से ही साक्षात् दर्शन होते थे उन्हें भी विठ्ठल ने ही गुरू धारण करने के लिए विशोबा खेचर के पास भेजा। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जो माँ काली के दर्शन व उनसे बातें किया करते थे उन्हें भी गुरू तोतापरी की शरण में आने के बाद ही निर्विकल्प समाधि (समाधि की सबसे ऊँची अवस्था) की प्राप्ति हुई। 60 साल की उम्र तक भटकने के बाद गुरु अमरदास जी महाराज को गुरू धारण करने की ज़बरदस्त इच्छा गुरु अंगद देव जी महाराज के पास खींच कर ले गयी और एक दिन वह स्वयं ही गुरू कृपा से ईश्वर का रूप बन गये।

गुरू भी बहुत सोच समझकर व परखकर किसी को अपना शिष्य बनाता है। एक सच्चा शिष्य अपना व्यक्तित्व, मन, बुद्धि, आत्मा व अपने सारे सांसारिक अधिकार व वस्तुएँ गुरू को अर्पित कर, पूरा आत्मसमर्पण कर उसकी शरण में आ जाता है। ज्ञान, शिक्षा, अनुभव और ईश्वर को पाने की कोशिश ही उसका एकमात्र लक्ष्य होता है। ऊँची सोच, अच्छे जीवन मूल्य और संस्कार, सादगी से भरा ब्रह्मचर्य व संयमित जीवन, ज़बरदस्त आत्मसंयम, नम्रता, मेहनत, उत्साह और दूसरों की मदद आदि गुण ही एक अच्छे शिष्य की पहचान बनते हैं। संस्कृत के एक श्लोक के अनुसार एक शिष्य को कौए की तरह फुर्तीला और दृढ़ निश्चयी, बगुले की तरह एकाग्र, कुत्ते की तरह कम सोने वाला, अल्पाहारी (कम खाने वाला) और ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला होना चाहिए।


गुरू शिष्य की परम्परा और संबंध आदिकाल से आज तक चले आ रहे हैं। दुनिया का हर संबंध पारिवारिक या सामाजिक, हालात या मौत के साथ खत्म हो जाता है। लेकिन गुरू शिष्य संबंध जन्म-जन्मांतर है व युगों-युगों तक कायम रहता है। यह पवित्र और unconditional (बिना किसी शर्त का) संबंध प्रेम, श्रद्धा और विश्वास की supreme form यानि कि परम अवस्था है। इसमें शिष्य भूलनहार और गुरू बख़्शनहार है। गुरू को साक्षात् ईश्वर मानकर उस पर सच्ची श्रद्धा और ज़बरदस्त आस्था ही शिष्य को सफल करती है। एक प्रसिद्ध पद (verse) के अनुसार गुरू की मूर्ति व स्वरूप मनन और ध्यान के लिए हैं, गुरु के चरण पूजा के लिए हैं व गुरु के वचन ईश्वर का हुकम हैं। गुरु की हर इच्छापूर्ति और आज्ञा का पालन करना इस संबंध का आधार है। गुरु द्रोणाचार्य ने जब एकलव्य को अपना शिष्य बनाना मंजूर नहीं किया तो उसने गुरू की मूर्ति बनाकर उस पर ही अपनी दृढ़ आस्था और सच्ची श्रद्धा अर्पित कर ऐसा कड़ा अभ्यास किया कि एक दिन वह अर्जुन से भी बड़ा तीरंदाज़ बन गया। गुरू द्रोणाचार्य ने भी अपने सबसे निष्ठावान और प्यारे शिष्य अर्जुन के मोह में और उसको सबसे बड़ा तीरंदाज़ बनाने के लिए एकलव्य से दक्षिणा के रूप में उसके सीधे हाथ का अंगूठा माँगकर अन्याय से भरी नाजायज़ माँग की तो उस सच्चे शिष्य ने गुरू शिष्य के संबंध की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए बिना किसी शिकन के अंगूठा काटकर गुरू के चरणों में रख दिया। भगवान श्री राम भी जब बिना उफ किए और बिना किसी शंका के महलों के सुखों को छोड़कर गुरू विश्वामित्र के साथ जंगल में चले गये व ताड़का और सुबाहु इत्यादि असुरों से गुरू और गुरूकुल की रक्षा की तो गुरू विश्वामित्र ने भी उन्हें अहिल्या जैसी देवी का उद्धार और सीता से विवाह के अवसर प्रदान किए व उनके मर्यादा पुरूषोत्तम बनने में अपनी भूमिका अदा की। जब शिष्य गुरू की सहायता व मर्ज़ी के साथ उसके दिखाए हुए रास्ते पर, सिर झुकाकर पूरी आस्था के साथ, बिना किसी शंका व गुरु की कोई परीक्षा लिए, धैर्य के साथ आगे बढ़ता है व जैसे जैसे उसकी इच्छाऐं, अनिश्चितायें, अपेक्षायें इत्यादि खत्म हो जाती हैं वह गुरू के समीप आता जाता है व आखिर में जब उसका अहम (ego) खत्म हो जाता है चाहे वह एक क्षण में हो या 100 जन्मों में, वह गुरू के साथ एकाकार हो जाता है। गुरू चाहे तो एक क्षण में शिष्य को सारी शिक्षा व दातें दे सकता है लेकिन वह ऐसा करता नहीं। वह उसे संघर्ष, मेहनत व ज़िम्मेदारी के रास्ते पर, नम्रता और दया भाव से दीन बनकर एक एक कदम चलना सिखाता है और पग पग पर उसकी परीक्षा लेकर उसे पक्का करता है। कबीर दास जी ने बहुत खूबसूरत लिखा है :

गुर कुम्हार सिक्ख कुंभ है गढ़ गढ़ काढ़े खोट ।

अंतर हात सहार दै बाहर वाहै चोट ||

जब शिष्य रूपी मिट्टी गुरू रूपी कुम्हार के सामने आत्मसमर्पण कर देती है तो गुरु अपने कौशल और सामर्थ्य से उसे एक घड़े रूपी पहचान में बदल देता है। गुरू शिष्य को सिर्फ ज्ञान ही नहीं बल्कि अपने अनुभव, अपनी ज़िंदगी का सार, अपना सबकुछ यहाँ तक कि समय आने पर अपनी जोत भी थमा देता है। इसकी सबसे उत्तम मिसालें सिक्ख धर्म में मिलती हैं जहाँ सिक्ख का मतलब ही शिष्य है। जब भाई लहणा जी ने सच्चे और योग्यतम शिष्य होने की बेजोड़ मिसाल कायम की तो गुरूनानक देव जी महाराज ने भी अपने खून, औलाद और परिवार को पीछे छोड़ते हुए अपनी जोत और गुर-गद्दी उन्हें सौंप दी। गुरू शिष्य संबंध की यही अद्वितीय (unparalleled) मिसालें 'गुरु अंगद देव जी महाराज और गुरू अमरदास जी महाराज' व 'गुरु अमरदास जी महाराज और गुरू रामदास जी महाराज' ने भी प्रस्तुत कीं। यह वह अटूट संबंध है जहाँ दोनों ही एक दूसरे के प्यार में अपना सब कुछ एक दूसरे पर न्यौछावर कर देते हैं। जब स्वामी गंगाधर जी पहली बार अपने गुरू परमहंस संत श्री सुखदेव शाह जी महाराज से मिलने डेरा इस्माईल खाँ आए तो पाया कि वह तो बहुत देर से चिलचिलाती धूप और गर्मी में नदी के किनारे उनका इन्तज़ार कर रहे थे। जब वह स्वामी गंगाधर जी से मिलने टाँक गए तो कई महीनों तक स्वामी जी के हाथों से बनी बिना नमक के, प्रेम और श्रद्धा से रत फीकी खिचड़ी बेखबर होकर खाते रहे। यह होता है इस संबंध का unconditional प्यार और एक-दूसरे के साथ लगाव। यह वह रास्ता है जिस पर चलकर शिष्य गुरू की शिक्षा, परम्परा और आदर्शों को ज़िंदा रखता है व आने वाले समय और अगली पीढ़ी को सौंपता है। अधिकतर हर गुरू की यात्रा इसी संबंध में एक शिष्य के रूप में बंधकर ही शुरू होती है।

गुरु सिखु सिखु गुरू है एको गुर उपदेसु चलाए ।

राम नाम मंतु हिरदै देवै नानक मिलणु सुभाए ।

प्यारी साध संगत जी, उम्मीद करता हूँ कि आप सभी गुरू शिष्य, गुरू सिक्ख के इस बेजोड़ और बेमिसाल रिश्ते से और इसकी मर्यादा और अहमियत से अच्छी तरह से वाकिफ हो गये होगें। मैं गुरू महाराज जी से दुआ करता हूँ कि हम सबको सद्बुद्धि और हिम्मत बख्शें कि हम उनके दिखाये हुए रास्ते पर चलें और उनके हर हुक्म, हर आज्ञा का पालन करते हुए अपनी जिंदगी सफल करें।



वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह।
गुरसंगत का दास
संतरेन डाॅ० हरभजन शाह सिंघ, गद्दी नशीन