गुरू-गद्दी इतिहास
बात उन दिनों की है जब चौथे पातशाह धन-धन श्री गुरू रामदास जी महाराज ‘गुरू के चक्क’ (अमृतसर का पुरातन नाम) में श्री हरमंदर साहिब के ’अमृत सरोवर’ की कार सेवा करवा रहे थे। तब झेलम में अरोड़ा जाति के भाई सोमा जी अपनी माँ के साथ रहते थे। भाई सोमा जी की उम्र लगभग 14 साल की थी। परिवार का पालन-पोषण करने के लिए उनकी माता जी उन्हें घुंघणीयां (उबले हुए चने या मूंग) बनाकर देती थीं। भाई सोमा जी एक धर्मशाला के पास अपनी छाबड़ी लगाकर इन घुंघणीयों को बेचा करते थे और अपना जीवन निर्वाह किया करते थे।
 

एक दिन भाई सोमा जी को धर्मशाला में आने-जाने वाले लोगों से पता चला कि श्री हरमंदर साहिब (अमृतसर) में सरोवर की कार सेवा चल रही है और दूर-दूर से संगत वहाँ दर्शन करने व सेवा करने जा रही हैं। घर जाकर उन्होंने अपनी माता जी को यह बात बतायी और तब भाई सोमा जी व उनकी माता जी ने गुरूजी की शरण में जाकर कार सेवा करने का निश्चय किया। अमृतसर पहुँचकर भाई सोमा जी और उनकी माताजी कार सेवा में जुट गए। भाई सोमा जी बड़ी ही मेहनत व लगन से सेवा किया करते थे। सभी सेवादार भाई सोमा जी की सेवा प्रशंसा करते नहीं थकते थे। सतगुरू सच्चे पातशाह, धन श्री गुरू रामदास जी के कानों तक भी यह बात पहुँची कि भाई सोमा जी तन-मन से सेवा कर रहे हैं। एक दिन श्री गुरू रामदास जी भाई सोमा जी की मेहनत व लगन से की जाने वाली सेवा की सराहना कर रहे थे तो आस-पास खड़े सेवादारों में से एक सेवादार ने कहा ’’क्या हुआ जो भाई सोमा इतनी सख्त मेहनत करता है, बदले में वह लंगर करता है व उसे रहने के लिए अच्छी जगह भी मिली हुई है।’’ जब यह बात भाई सोमा जी के कानों तक पहुँची तो उनके मन को बहुत पीड़ा हुई। भाई सोमा जी ने यह बात अपनी माताजी को बताई। उनकी माँ बहुत बुद्धिमान थीं, वह अपने बच्चे की पीड़ा समझती थीं। उनको मालूम था कि उनका बेटा अन्दर से दुःखी है। इसलिए उन्होंने सोमा जी से कहा कि लंगर तो अपने निश्चित समय पर होता है किन्तु सेवादारों को इस बीच के समय में भी खाने के लिए कुछ चाहिए होता है तो उस बीच के समय में आप घुंघणीयां बेचो और बाकी समय सेवा करो। उससे जो भी कमाई होगी, उससे हमारा जीवन यापन हो जाएगा। भाई सोमा जी ने इस प्रकार घुंघणीयां बेचना शुरू किया और साथ ही कार सेवा करते रहे। यह बात धीरे-धीरे श्री गुरू रामदास जी के पास भी पहुँच गई कि अब तो भाई सोमा जी अपने जीवन-निर्वाह के लिए घुंघणीयां बेचने लगे हैं और सेवा भी पहले से अधिक करने लगे हैं।

 

एक दिन शाम को धन श्री गुरू रामदास जी महाराज सरोवर की सेवा देखते-देखते वहाँ पहुँचे, जहाँ भाई सोमा जी अपनी छाबड़ी लगा कर बैठे थे। सच्चे पातशाह थोड़ी देर वहीं रूक गए। भाई सोमा जी को देख गुरू जी को अपना वही समय याद आ गया जब वे स्वयं, इसी तरह घुंघणीयां बेचा करते थे और जीवन-निर्वाह किया करते थे। गुरू महाराज दया के घर में आ गए व गुरू जी भाई सोमा जी के पास जाकर बोले ’’भाई सोमा, आज कितनी वटक (कमाई) हुई है?’’भाई सोमा जी उठे और गुरू जी के चरणों में मत्था टेका और अपने पूरे दिन की कमाई गुरूजी को बताई। फिर गुरू जी ने कहा ’’भाई, अपनी आज की सारी कमाई हमें दे दो, क्योंकि हमें मज़दूरों को मज़दूरी देनी है।’’ भाई सोमा जी ने खुशी-खुशी अपनी सारी कमाई गुरूजी के चरणों में समर्पित कर दी। गुरू साहिब ने भाई सोमा जी की सारी कमाई मज़दूरों में बांट दी।

 

श्री गुरू रामदास जी महाराज भाई सोमा जी की सेवा-समर्पण की भावना देखकर बड़े खुश हुए। दूसरे दिन गुरू जी ने फिर यही कौतुक वरताया। दूसरे दिन गुरू जी फिर भाई सोमा जी के पास गए व उनसे उनकी सारे दिन की कमाई पूछी और सारी कमाई देने के लिए कहा। भाई सोमा जी ने भी उसी तरह गुरू जी के चरणों में मत्था टेका और खुशी-खुशी सारी कमाई गुरू महाराज जी के चरणों में समर्पित कर दी। इस तरह पूरे पांच दिन यही कौतुक वरतता रहा। भाई सोमा जी भी पूरे पांच दिन तक बिना किसी सवाल, बिना किसी शंका के गुरू महाराज जी के आगे सारी कमाई रखते रहे, क्योंकि भाई सोमा जी को गुरू महाराज जी पर पूरा विश्वास था और उन्हें पता था कि गुरू महाराज जी घट-घट की जानने वाले हैं। धन-धन श्री गुरू रामदास जी, सच्चे पातशाह जानते थे कि भाई सोमा जी पर सेवा और नाम-बाणी का गहरा प्रभाव हो चुका है, इसलिए उनके ऊपर माया का प्रभाव नहीं है। आज पांचवे दिन जब भाई सोमा जी ने पूरे दिन की कमाई गुरू महाराज जी को समर्पित कर दी तो उनके पास अगले दिन की घुंघणियों के लिए कोई पैसा ना बचा। उनकी माताजी ने कहीं से उधार लेकर अगले दिन के लिए घुंघणियों का इंतज़ाम किया।

 

छठें दिन जब भाई सोमा जी ने गुरू महाराज जी को अपनी तरफ आता देखा तो वे स्वयं ही आगे बढ़कर गुरूजी को नतमस्तक हो गए और अपनी सारी कमाई उनके चरण-कमलों में अर्पित कर दी। यह देखकर श्री गुरू रामदास जी बड़े प्रसन्न हुए। भाई सोमा जी की निःस्वार्थ सेवा व समर्पण की भावना देखकर गुरू जी दया के घर में आ गए और उन पर अपनी मेहर बरसाते हुए बोले ’’भाई सोमा, अज असीं कुझ लेणा नहीं, देणा है।’’ पर पहले ये बताओ कि ’’जो किसी को पैसे उधार देता है वो कौन होता है?’’ सहज स्वभाव से भाई सोमा जी ने कहा ’’पातशाह देने वाला ’’शाह’’ होता है।’’ चोजी प्रीतम, धन श्री गुरू रामदास जी मुस्कुराये और बोले, ’’भाई सोमा, आज से तू सोमा नहीं सोमा शाह हुआ।’’ गुरू जी ने वचन किए ’’सोमा शाह, बेपरवाह, गुरू का शाह।’’ इस तरह गुरू जी ने भाई सोमा जी को ’’शाह’’ की पदवी दी और कहा ’’आज से बरकतें होंगी, शाह कहलाएगा, बेपरवाह रहेगा, गुरूसिक्खी का सेवक होवेगा।’’

 

इतिहास गवाह है कि घुंघणीयां बेचने वाले भाई सोमा जी गुरू जी के वचनानुसार शाह बन गए, बरकत हो गयी, सिर्फ धन की ही नहीं, नाम-बाणी की भी बरकत हो गयी, परमार्थ में भी शाह हो गए।

 

धन श्री गुरू रामदास जी महाराज के ज्योति-ज्योत समाने के बाद उनके सुपुत्र श्री गुरू अर्जुन देव जी महाराज ने गुरू गद्दी संभाली और उन्होंने भाई सोमा शाह जी के सुपुत्र को झेलम की मंजी व सिक्खी बख़्शी और उन्हें दसवंद व गुरूघर के लिए भेंटा एकत्रित करने के लिए नियुक्त किया। उन्होंने अपने पिता की भांति बहुत सेवा की और बख़्शी हुई सिक्खी और सेवा को बहुत आगे बढ़ाया।

 

वक्त बीतता गया और भाई सोमा शाह जी के वंशज बड़ी लगन और निष्ठा के साथ गुरू एवं संगत की सेवा करते रहे और जब दशमेश पिता श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी महाराज गुरू गद्दी पर आये तो उन्होंने भाई सोमा शाह जी के एक वशंज श्री मेहर शाह जी जो उनके बहुत करीब और अज़ीज़ थे उनको अपने कर-कमलों से अमृत छकाया और उस दिन से श्री मेहर शाह जी, श्री मेहर शाह सिंघ जी कहलाये और दशमेश पिता ने उन्हें, ’’बख़शद फरज़ंद’’ के खिताब से नवाज़ा। उनकी लगन, निष्ठा व सेवा को देखते हुए उन्हें उनके पूर्वजों की तरह डेरा जात (जो कि डेरा इस्माईल खाँ, डेरा गाज़ी खाँ, मियाँवाली, टाँक, बन्नू आदि ज़िलों को बना कर बनता था) इलाके की मंजी व सिक्खी बख़्षी।

 

मेहर शाह सिंघ जी के सुपुत्र थे संत गरीब शाह जी और उनके सुपुत्र हुए सति सांवल शाह जी। इनके सुपुत्र संत शाह जी थे। संत शाह जी हमेशा कच्ची कन्ध (दीवार) पर बैठते थे।

संत शाह जी के बारे में एक कथा अत्यंत प्रसिद्ध है कि एक बार डेरा इस्माईल खाँ का नवाब वहाँ के वार्षिक मेले में अपनी बग्घी पर बैठ कर जा रहा था और उसने मज़ाक में संत शाह जी से साथ चलने का आग्रह किया। संत शाह जी ने कहा ’’ठीक है’’ और वह कच्ची कन्ध (दीवार) जिसपर वह विराजमान थे, नवाब की बग्घी के साथ-साथ चल पड़ी व संत शाह जी नवाब के साथ मेले में पहुँच गए एवं उसी दीवार पर बैठकर वह यथास्थान पर वापिस आ गए। यह कौतुक देखकर नवाब आश्चर्यचकित रह गया। इसके पश्चात् संत शाह जी ’’जिन्हां कन्धां टोरिआं’’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। उस दिन से नवाब महाराज जी का मुरीद हो गया और देश के बंटवारे तक नवाब के वंशज पाकिस्तान में गुरूघर की सेवा करते रहे। सन् 1821 में जब महाराजा रणजीत सिंह ने डेरा इस्माईल खाँ पर विजय प्राप्त करी तो नवाब ने उनको एक सच्चे सिक्ख संत के दर्शन का आमंत्रण दिया एवं महाराजा रणजीत सिंह उनके दर्शन के लिए उनके स्थान पर आये और श्रद्धापूर्वक उन्हें 1700 मोहरें, 17000 वर्ग एकड़ भूमि, एक चोला एवं एक बैरागन भेंट की (यह भूरे रंग का चोला आज भी ’परमहंस संत श्री सुखदेव शाह जी महाराज’ की तस्वीर में देखा जा सकता है)। संत शाह जी ने इस भूमि पर खेती करवाई और उत्पन्न अन्न द्वारा लंगर चलाया।

 

संत शाह जी के सुपुत्र संत तीरथ शाह जी थे। संत तीरथ शाह जी के सुपुत्र ’परमहंस संत श्री सुखदेव शाह जी महाराज’ थे व उनके सुपुत्र ’संत शिरोमणि श्री 108 श्री वासदेव शाह सिंघ जी महाराज’ थे। इन चारों पीढ़िओं ने मिलकर डेरा इस्माईल खाँ में एक विशाल और शानदार गुरूद्वारा साहिब का निर्माण किया। ’परमहंस संत श्री सुखदेव शाह जी महाराज’ द्वारा टाँक में दो अन्य गुरूद्वारों का भी निर्माण करवाया गया।

 

सबसे बड़ा गुरूद्वारा साहिब ’संत शिरोमणि श्री 108 श्री वासदेव शाह सिंघ जी महाराज’ द्वारा मियाँवाली में बनवाया गया। उन्होंने सति सांवल शाह जी की गद्दी जो कि पाकिस्तान में डेरा इस्माईल खाँ में थी वह अलवर शहर, राजस्थान में स्थापित की और रूड़की में भी एक भव्य गुरूद्वारा साहिब का निर्माण करवाया। ’संत शिरोमणि श्री 108 श्री वासदेव शाह सिंघ जी महाराज’ के ब्रह्मलीन होने के बाद उनके सुपुत्र संतरेन बाबा रघबीर शाह सिंघ जी महाराज गद्दी पर विराजमान हुए और वर्तमान में उनके सुपुत्र सन्तरेन डॉ. हरभजन शाह सिंघ जी गद्दीनशीन हैं।

 
References :

Tawarikh Guru Khalsa By Gyani Gyan Singh Ji
Shri Asht Guru Chamatkar (Part 1 & 2) Bhai Sahib Veer Singh Ji
Hamara Dera Ismail Khan (Tasveer-E-Ashiana) by Jaswant Ram Allawadi