मुझे बहुत खुशी है कि हमारा पिछला संदेश शादी ( भाग - 1 ) बहुत पसन्द किया गया। बहुत से लोगों ने इस विषय पर मुझसे बातचीत की। नवम्बर 2016 के रुड़की यज्ञ साहिब पर गुरसंगत की बैठक में शादी और दहेज' सामाजिक चर्चा के विषय बने और दहेज के ऊपर हमने दो घंटे का एक दिलचस्प audio-visual कार्यक्रम भी आयोजित किया। इन सबसे यह पता चलता है कि शादी हम सबकी जिंदगी में बहुत अहम जगह रखती है। पिछले अंक में हमने चर्चा की कि शादी क्या है, इसका इतिहास और अहमियत क्या है और शादी में अनबन की वजह क्या है।
अब हम आगे बढ़ते हैं और सबसे पहले विचार करेंगे उन तरीकों और उपायों पर जिनसे ना सिर्फ शादियों को खराब होने और टूटने से बचाया जा सकता है बल्कि इस रिश्ते को मज़बूत कर एक stable, स्थिर परिवार की नींव रखी जा सकती है। शादी एक give and take यानि कि लेन-देन वाला रिश्ता है। कहते हैं घास वहीं ज्यादा हरी होती है जहाँ ज्यादा पानी दिया जाता । ठीक उसी तरह इस रिश्ते को दोनों तरफ से जितनी संजीदगी से निभाया और संवारा जाता है यह उतना ही कामयाब और मज़बूत बनता है। शादी में झूठ, मक्कारी या दिखावे की शादी से पहले या शादी के बाद में कोई जगह नहीं है ( शादी में मैं, तू, तेरा और मेरा नहीं बल्कि सिर्फ हम और हमारा होता है) विश्वास करना और विश्वास के लायक बनना (forget and forgive, भूलना और माफ करना) अपनी की जगह हमारी विचारधारा को अपनाना (एक दूसरे के प्रति ईमानदार, वफादार और वचनबद्ध रहना) एक दूसरे के प्रति प्यार और आभार प्रकट करना (एक दूसरे की अच्छाईयाँ, बुराईयाँ, ताकत, कमजोरियाँ, पसन्द और नापसन्द को अच्छी तरह से जानना और उन्हें accept कर लेना, मान लेना) एक दूसरे के लिए बहुत सारी सहनशीलता (patience), एक दूसरे के परिवार वालों, रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ अपनापन बनाना और अच्छा बर्ताव करना बहुत ज़रूरी है और ज़रूरी है किसी भी तरह के लड़ाई-झगड़ों, अनबन और कलह को आपस में, अकेले में शान्तिपूर्वक निबटाना और कभी भी उन्हें public, सार्वजनिक ना करना (छोटे-बड़े compromises, समझौते करना और करते रहना) सुनना, एक अच्छा श्रोता बनना और जिंदगी भर सीखते रहना (एक दूसरे के साथ ज़्यादा से ज़्यादा वक्त बिताना) एक दूसरे के लिए mutual respect, आपसी आदर भाव रखना, इज्जत करना (एक दूसरे के विचारों को, individuality, शख़्सियत को, आदतों को अपनाने की कोशिश करना) financial and future planning यानि कि आर्थिक और भविष्य की योजना एक साथ बनाना (अपनी गलती या कोई पाप या कमज़ोरी को मानना और माफी माँग लेना) एक-दूसरे की छोटी-बड़ी कामयाबी को एक साथ मनाना या एक दूसरे के गम और विफलता (failure) में शामिल होना (एक दूसरे के प्रति emotional intimacy, भावात्मक आत्मीयता और mutual understanding, आपसी समझदारी का होना। अगर पति पत्नी इनमें से आधी बातें भी अपना लें तो उनकी जिंदगी और शादी बहुत कामयाब हो सकती है। कहते हैं पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका से ज़्यादा आसान है दोस्त बनना और बने रहना। जो पति-पत्नी जिंदगी भर एक दूसरे के अच्छे दोस्त बने रहते हैं उनकी शादी दूसरों के लिए मिसाल बन जाती है| Infidelity यानि कि दाम्पत्य विश्वासघात किसी भी शादी को सूखे पत्तों की तरह एक क्षण में बिखेर देता है। कामयाब शादी के लिए fidelity और faithfulness का होना यानि कि सिर्फ और सिर्फ अपने जीवनसाथी के साथ ही संबंध रखना बहुत जरूरी है। इसके साथ-साथ ज़रूरी है मन, आँखों और दिमाग की भटकन को रोकना। भाई गुरदास जी फरमाते हैं:
देखि पराईआ चंगीआ मावां भैणां धीआं जाणै ।
भाई देसा सिंह भी रहतनामे में फरमाते हैं:
पर बेटी को बेटी जानै । पर स्त्री को मात बखानै ।।
आज के context, संदर्भ में यह पुरूष और स्त्री दोनों के लिए ही मान्य है, दोनों पर ही लागू होता है।
यह भी अच्छी तरह से जान और मान लीजिए कि दुनिया में perfection परिपूर्णता या दोषहीनता नाम की कोई चीज़ नहीं है। ना आप और ना ही आपका साथी perfect, without faults, त्रुटिरहित या दोषरहित है। सुखी शादीशुदा जिंदगी के लिए अपने जीवनसाथी से उम्मीदों को कम रखने में ही समझदारी है।
अब हम आते हैं सिक्खी शादी पर। सिख धर्म में शादी को आनन्द कारज कहते हैं । आनन्द का मतलब है bliss or ecsatasy, परमानंद, सुखद, हर्षोन्माद की भावना और कारज शब्द संस्कृत के शब्द क्रिया से लिया गया है जिसका मतलब है कुछ करना या धार्मिक कर्म । आनन्द कारज का मतलब है ceremony of bliss या कि परम हर्ष या सुख देने वाला समारोह, अनुष्ठान । आनन्द कारज एक पवित्र समारोह है जो धन धन श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी महाराज की हजूरी और मौजूदगी में आयोजित किया जाता है और पति-पत्नी को एक blissful spiritual union यानि कि एक सुखद आत्मिक बंधन में बाँध देता है। आनन्द कारज के वक्त चार लावां पढ़ी जाती है और फिर गायी जाती हैं। जोड़े को हर लावां के साथ श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी महाराज की परिक्रमा करनी होती है। चौथे पातशाह धन-धन श्री गुरू रामदास जी महाराज ने लावां की रचना सूही राग में पदों के रूप में की थी । सन् 1579 में पाँचवें पातशाह धन-धन श्री गुरू अर्जनदेव जी महाराज और माता गंगा जी आनन्द कारज के रूप में शादी करनेवाले पहले जोड़े बने।
आनन्द कारज के वक्त शादी करने वाले जोड़े के द्वारा धन-धन श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी महाराज की परिक्रमा करना कोई आम बात या क्रिया नहीं है। इसका एक ज़बरदस्त महत्व और अर्थ है। जोड़ा धन-धन श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी महाराज को हाज़िर - नाज़िर मानकर, उनको साक्षी, गवाह मानकर ईश्वर को यह वचन देता है कि वो जिंदगी भर धन-धन श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी महाराज को अपनी जिंदगी का केन्द्र (centre), आधार मानेंगे और उनके दिखाए हुए रास्ते पर, उनकी शिक्षाओं पर अमल कर अपनी ज़िंदगी गुज़ारेगे। लाव singular, एकवचन है और चारों लाव जोड़कर बनती है लावां, जो कि plural, बहुवचन है। हालांकि दुनियावी रूप में लावां का मतलब है आनन्द कारज के वक्त लिए जाने वाले nuptial rounds, श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी महाराज के फेरे या परिक्रमा करना, लेकिन आध्यात्मिक रूप में लावां वो चार अवस्थाएं हैं जो आत्मन यानि कि आत्मा रूपी पत्नी को परमात्मा रूपी पति के साथ मिलन के लिए पार करनी पड़ती हैं। हर लाव अपने अन्दर ज्ञान का एक महासागर, महाकोष है और आत्मा का परमात्मा से मिलन की यात्रा का सार समेटे हुए है।
पहली लाव में गुरू महाराज जी जोड़े को समझाते हैं कि उनकी शादीशुदा ज़िंदगी का हर पहलू, हर क्रिया सिर्फ और सिर्फ धन-धन श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी महाराज से ही मदद और मार्गदर्शन (guidance) लेंगे और गुरवाणी और नाम को ही अपनी जिंदगी का आधार बनाएंगे और उनके दिखाए हुए रास्ते पर चलकर उनकी जिंदगी प्यार, विश्वास, दया, वफादारी और संतोष से भर जाएगी। धन-धन श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी महाराज ही वो सच्चे गुरू हैं जो नाम की दात बख़्शते हैं और उन्हीं के दिखाए हुए रास्ते पर चलकर ही जोड़ा अपने पापों, संचित कर्मों का नाश कर अपनी जिंदगी को सफला कर सकता है।
हरि पहिलड़ी लाव परविरती करम द्रिड़ाइआ बलिराम जीउ ।
बाणी ब्रह्मा वेदु धरमु द्रिड़हु पाप तजाइआ बलिराम जीउ ।।
पहली लाव की summary, सार इस प्रकार है :
गुरु महाराज जी इंसान को शादीशुदा जिंदगी के लिए हिदायतें दे रहे हैं। गुरु महाराज जी फरमाते हैं कि इंसान को गुरवाणी का अनुसरण करते हुए नीति और सदाचार से भरा जीवन जीना चाहिए और सच्चाई और धर्म के रास्ते पर चलते हुए अनैतिक, पापपूर्ण और अधर्मी सोच का त्याग कर झूठ और धोखाधड़ी से बचना चाहिए। ईश्वर और गुरवाणी को अंगीकार करना और उन पर पूरा विश्वास करना और नाम सिमरन करना चाहिए। सच्चे गुरू की पूजा, अराधना और उस पर सच्ची आस्था ही इंसान के पापों, दुष्कर्मों और संचित कर्मों का नाश कर सकती है। खुशनसीब हैं वो लोग जिनके मन को ईश्वर और उसका नाम मीठा लगता है और उनको सहज ही परम और असीम आनन्द की प्राप्ति होती है ।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पहली लाव इस बात पर ज़ोर देती है कि शादी का केन्द्र आत्मिक, आध्यात्मिक है और जोड़ा जो शादी के बाद (आध्यात्मिक रूप में आत्मा जो नया शरीर धारण करने के बाद) एक नयी जिंदगी शुरू करने जा रहे हैं उन्हें नाम और गुरवाणी का साथ लेकर धर्म, सदाचार और सच्चाई से भरा हुआ जीवन जीना चाहिए।
दूसरी लाव में गुरू महाराज जी फरमान करते हैं कि पहली लाव की शिक्षा, सीख पर अमल करके जोड़ा (आत्मा) अब दूसरी अवस्था में पहुँच चुका है। पहली लाव में मिला नाम उसके अन्दर मौजूद काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष और नफरत जैसे बड़े-छोटे बहुत से दुश्मनों से सामना, मुकाबला करने में, उन पर अंकुश लगाने और उनका दमन करने में उनकी मदद करता है। इन दुश्मनों का डर, खौफ अब उनके दिमाग और दिल से निकल जाता है। गुरवाणी और नाम उन्हें सच्चे गुरु से मिला देते हैं और अब गुरू के सच्चे और पवित्र, पाक डर का ही अहसास है जिसने उन्हें दुश्मनों के डर से आज़ाद कर दिया है।
हरि दूजड़ी लाव सतिगुरु पुरखु मिलाइआ बलिराम जीउ ।
निरभउ भै मनु होइ हउमै मैलु गवाइआ बलिराम जीउ ।।
दूसरी लाव की summary, सार इस प्रकार है :
दूसरी लाव में गुरू महाराज जी इंसान को ईश्वर रूपी सच्चे गुरू से मिला देते हैं। गुरू के अंग-संग, साथ होने के अहसास से इंसान के अन्दर के सभी दुनियावी, मानसिक और आत्मिक डर निकल जाते हैं । अन्दर की सारी विकारों से भरी गन्दगी धुल जाती है और उसके अन्दर सिर्फ ईश्वर का पवित्र डर और अहसास रह जाता है। यह डर और अहसास उसे हर जगह, हर चीज़ में ईश्वर के दर्शन कराता है । ईश्वर का अहसास इंसान की जिंदगी के हर खाली पहलू को भर देता है। इंसान यह बात अच्छी तरह से समझ जाता है कि ईश्वर ही इस कायनात की आत्मा है, सर्वव्यापी है। अब वह उन इंसानों के साथ मिलकर जो इस अवस्था में पहुँच चुके हैं ईश्वर की स्तुति, प्रशंसा और गायन में मगन हो जाता है और हर जगह ईश्वर को हाज़िर - नाज़िर पाता है ।
इस प्रकार गुरू महाराज जी दूसरी लाव में यह बताते हैं कि शादी का केन्द्र गुरू है और ऐसी शादी, ऐसा बंधन जो गुरू पर आधारित है वह हर्ष और असीम आनन्द की प्राप्ति कराता है।
तीसरी लाव में गुरू महाराज जी फरमाते हैं कि पहली दो अवस्थाओं को कामयाबी से पार कर अब जोड़े के मन में सिर्फ ईश्वर का डर और अहसास है और वो अब ईश्वर की स्तुति और गायन करके एक दैविक, रुहानी खुशी महसूस करते हैं और दुनियावी पदार्थों, छलावों और सुखों से दूर होते जाते हैं। नाम सिमरन और गुरु की प्राप्ति के कारण उनकी किस्मत, भाग्य जाग जाता है और उन्हें साध संगत की प्राप्ति होती है जिससे उनके दिल में ईश्वर का प्यार पैदा हो जाता है।
हरि तीजड़ी लाव मनि चाउ भइआ बैरागीआ बलिराम जीउ ।
संत जना हरि मेलु हरि पाइआ वडभागीआ बलिराम जीउ ।।
तीसरी लाव की summary, सार इस प्रकार है :
अब इंसान के दिल में धीरे-धीरे ईश्वर का प्यार पैदा होने लगता है और वह हमेशा एक ईश्वरीय, दैविक, रुहानी प्यार और खुशी के अहसास से सरोबार रहता है। अच्छी किस्मत और भाग्य उसे नाम जपने वाले सन्त-महात्माओं और संगत जो ईश्वर को प्यार करते हैं और उसको पा चुके हैं उन तक ले जाता है। अब इंसान उस ईश्वर को ढूँढ लेता है और उसकी स्तुति, अकथ वार्ता और गुरवाणी में लीन रहता है। उसकी अच्छी किस्मत से उसे साध संगत मिलती है और उसके दिल में कभी न रुकने वाला ईश्वर का रुहानी कीर्तन पैदा हो जाता है और ईश्वरीय सिमरन का अटूट प्रवाह शुरू हो जाता है।
इस प्रकार तीसरी लाव में गुरू महाराज जी बताते हैं कि ईश्वर तक पहुँचने और प्राप्ति के लिए साध संगत का साथ और संग बहुत ज़रूरी है। साध संगत से ही इंसान की किस्मत बदलती है और वह ईश्वर की तलाश में आगे बढ़ पाता है।
चौथी लाव में गुरू महाराज जी फरमान करते हैं कि अब तक दी गयी हर सीख पर अमल करते हुए जोड़ा तीनों अवस्थाऐं पार कर चुका है और उसके दिल और दिमाग में एक असीम खुशी और सुकून का अहसास है। वो अब दुनियावी इच्छाओं, चीज़ों और विकारों से रहित हो जाता है। नाम, गुरू और साध संगत की प्राप्ति की वजह से यह अवस्था मुमकिन हो पाती है।
हरि चउथड़ी लाव मनि सहजु भइआ हरि पाइआ बलिराम जीउ ।
गुरमुखि मिलिआ सुभाइ हरि मनि तनि मीठा लाइआ बलिराम जीउ ।।
चौथी लाव की summary, सार इस प्रकार है :
इंसान के अन्दर ब्रह्म ज्ञान की अवस्था पैदा हो जाती है। उसका दिल और दिमाग असीम सुकून से भर जाता है और गुरु की रहमत से उसे अपने मालिक की प्राप्ति होती है और वो ईश्वर के साथ एकाकार हो जाता है। उसके दिल और जिस्म में एक ऐसा मीठा और सुखद अहसास होता है जिसे बयान करना मुमकिन नहीं है। ईश्वर उसे बहुत मीठा लगता है, भाता है और ईश्वर भी उसे अब पसन्द करता है । उसे अब मनचाहा फल यानि कि ईश्वर मिल गया है और उसकी सभी इच्छाएं पूरी हो चुकी हैं। अब सुबह- शाम, दिन रात वह अपनी बिरती मालिक से जोड़े रखता है और हर पहर, हर साँस उसके अन्दर अपने मालिक के नाम का अटूट प्रवाह होता रहता है। अब वह रुहानी समय आ जाता है जब आत्मा रूपी दुल्हन, पत्नी अपने स्वामी, परमात्मा में विलीन हो जाती है।
चौथी लाव वह आखरी अवस्था है जिसे सहज अवस्था, stage of harmony भी कहा जाता है जब इंसानी जिंदगी का मकसद पूरा हो जाता है। यह आत्मा की परमात्मा में विलीन और शादीशुदा जोड़े की दो जिस्मों में एक आत्मा होने की अवस्था है।
अब हम बहुत brief, संक्षेप में हिन्दू रीति से होने वाली शादी के सात फेरों का मतलब समझने की कोशिश करेंगे। हिन्दू शादी में जोड़ा अग्नि (fire) के सात फेरे लेता है। इन्हें संस्कृत में सप्तपदि भी कहा जाता है। हिन्दू धर्म में अग्नि को maintainer, बनाए रखने वाला माना जाता है। पवित्र अग्नि को अग्नि देवता का रूप समझ कर, साक्षी मानकर सात फेरे लिए जाते हैं। हर फेरे के साथ मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। हर फेरे का दूल्हा और दुल्हन के लिए अलग-अलग महत्व और अर्थ है।
पहला फेरा : जोड़ा ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उन्हें प्रचुर (plenty, खूब) मात्रा में पौष्टिक खाना और इज्जत से भरी जिंदगी मिले। दूल्हा वचन देता है कि वह अपनी पत्नी और परिवार की खुशी, भलाई और कल्याण के लिए जिंदगी भर काम करता रहेगा। दुल्हन भी वचन देती है कि वह भी उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर सभी ज़िम्मेदारियों को ठीक से निभाएगी।
दूसरा फेरा : जोड़ा ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उन्हें मानसिक स्थिरता (mental stability), अच्छी सेहत और आत्मिक (spiritual) शक्ति मिले। दोनों एक दूसरे को प्यार करने की, हिम्मत और ताकत देने की कसम खाते हैं ।
तीसरा फेरा : जोड़ा ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उन्हें धन-दौलत, समृद्धि और खुशहाली मिलें। दोनों एक दूसरे के प्रति वफादार रहने की कसम खाते हैं।
चौथा फेरा : जोड़ा ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उनका एक दूसरे और एक दूसरे के परिवार वालों, बड़े बुजुर्गों के लिए प्यार और इज़्ज़त बढ़े और आपसी और पारिवारिक रिश्ते फलें फूलें। दूल्हा अपनी जिंदगी में खुशी, पवित्रता और शुभता (auspiciousness) लाने के लिए पत्नी का आभार प्रकट करता है। दुल्हन अपने पति को हर दैविक, ईश्वरीय और दुनियावी कामों में साथ देने का वचन देती है ।
पाँचवा फेरा : जोड़ा ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उन्हें बहुत अच्छी, कुलीन (noble) और बहादुर औलाद मिले जो उनके कुल को आगे बढ़ाएँ और नाम रोशन करें। दूल्हा अपनी पत्नी के लिए हर खुशी और सम्पन्नता की दुआ करते हुए उसे अपने सबसे अच्छे दोस्त के रूप में देखने और मानने का वचन देता है। दुल्हन अपने पति को सुख और दुख में साथ देने का और उसके प्यार में हमेशा खुश रहने का वचन देती है।
छठा फेरा : जोड़ा ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उन्हें खुशियों, प्यार और सुख से भरी हुई, शान्तिमय और लम्बी जिंदगी की दात मिले। दूल्हा अपनी पत्नी को हमेशा शान्ति और खुशियाँ देने का वचन देता है। दुल्हन उसे वचन देती है कि जिंदगी की हर घड़ी, हर पहलू और अवस्था में उसके साथ रहेगी और उसका साथ देगी।
सातवाँ फेरा : जोड़ा ईश्वर से आखरी फेरे में प्रार्थना करता है कि उन्हें जिंदगी भर एक दूसरे का प्यार, विश्वास, वफादारी और समझदारी से भरा हुआ साथ मिले। दूल्हा पत्नी को विश्वास दिलाता है कि उनका साथ और प्यार अटूट है और वह जिंदगी भर सिर्फ अपनी पत्नी का ही होकर रहेगा। दुल्हन अपने पति को एक वफादार साथी होने का विश्वास दिलाकर कहती है कि वह भी जिंदगी भर पति को प्यार करेगी और उसे कभी भी नीचा नहीं देखने देगी।
प्यारी साध संगत जी, उम्मीद करता हूँ कि आप सब लावां और फेरों का मतलब और अहमियत अच्छी तरह से समझ गए होंगे। आखिर में मैं आपसे शादी के बारे में एक रोचक बात साँझी करूँगा जो मैंने कई साल पहले पढ़ी थी। दुनिया में ज्यादातर लोग शादी के वक्त या शादी से पहले यह सोचते हैं कि शादी एक खूबसूरत डब्बा है और जो कुछ भी वो जैसे प्यार, खुशी, रोमांच, साथ, अपनापन और भी वह सब कुछ जो वो चाहते हैं उन्हें लगता है कि इस डब्बे में भरा हुआ है। जबकि सच्चाई यह है कि शुरूआत में शादी रूपी यह डब्बा बिल्कुल खाली होता है। शादी में अपना कोई खुद का प्यार, साथ, अपनापन या रोमांच नहीं होता, यह सब तो इंसानों में होता है। शादी करने वाले इंसानों को यह सब शादी में डालना पड़ता है। शादी करने वाले जोड़ों को एक दूसरे को खुशी और प्यार देने की, विश्वास और रोमांच पैदा करने की, माफ करने और माफी माँगने की, समझने और बर्दाश्त करने की कला और आदत सीखनी पड़ेगी ताकि यह डब्बा हमेशा भरा रहे। अगर किसी भी डब्बे में कम डालकर ज़्यादा निकाला जाए तो एक दिन वह डब्बा खाली हो जाएगा। इसलिए मेरे प्यारों, अपने शादी रूपी डब्बे को हमेशा प्यार, खुशी, साथ, अपनेपन, विश्वास, वफादारी और समझदारी से भर कर रखो और आप जल्द ही पाएँगे कि आपकी शादीशुदा जिंदगी खुशियों और कामयाबी से महक उठेगी और एक बात, अगर पति-पत्नी ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते तो वो हर रोज़ एक साथ अरदास करें और इसको आदत बना लें, जिंदगी का नियम बना लें। आप पाएँगे कि कुछ ही वक्त में उनकी शादीशुदा जिंदगी में positive, सकारात्मक बदलाव आने शुरू हो जाएँगें ।
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