पिछले दो अंकों में हमने शादी के अलग अलग पहलुओं पर काफी चर्चा की। चाहे अलग-अलग धर्मों, जातियों या समाजों में शादी करने के तरीके बेशक एक दूसरे से अलग हैं लेकिन हर जगह शादी की अहमियत एक जैसी ही है और शादी के हर एक तरीके की अपनी ही खूबियाँ हैं। सन् 1981 के जुलाई महीने की बात है मेरे पिताजी सन्तरेन बाबा रघबीर शाह सिंघ जी महाराज इंग्लैंड आए हुए थे और हम एक साथ ही टेलीविज़न पर प्रिंस चार्ल्स और लेडी डाएना की शादी का समारोह देख रहे थे। क्रिश्चियन तरीके से की गई उस शादी में दोनों के द्वारा लिए गये vows यानि कि वचनों, कसमों ने हम दोनों को बहुत प्रभावित किया । "मैं वादा करता / करती हूँ कि मैं तुम्हारे साथ अच्छे और बुरे वक्त में, बीमारी और अच्छी सेहत में, अमीरी और गरीबी में वफादार रहूँगा / रहूँगी और तुम्हें तब तक प्यार और इज्ज़त दूँगा / दूँगी जब तक कि मौत हमें जुदा ना कर दे।" वाह, शादी के बँधन में एक दूसरे का साथ निभाने का और सबके सामने बताने का यह कितना असरदार तरीका है।
कुछ इसी तरह की सोच और बहुत से अच्छे और कल्याणकारी विचारों के साथ हमने सन् 1973 में गुरसंगत विवाह की शुरूआत की जो आज तक कायम है और काफी असरदार तरीके से कामयाब है। सबसे पहले मैं आप सबका ध्यान हमारी जीवनशैली के पांचवे और आखिरी point (नुक्ते) पर लाना चाहूँगा जिसमें गुरसंगत में होने वाली शादियों का सारा सार छिपा हुआ है।
गुरसंगत के दो परिवारों के बच्चों की शादी गुरसंगत विवाह कहलाती है। अब सवाल यह उठता है कि आखिर में यह शादियाँ क्यों शुरू करवायी गयीं और आज भी इनको इतनी अहमियत क्यों दी जाती है। एक ही गुरू को मानने वाले, एक ही स्थान पर आने वाले परिवार एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं। एक दूसरे की पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति से वाकिफ होते हैं और अगर कुछ मालूम ना भी हो तो वह भी बहुत आसानी से पता लगाया जा सकता है। लड़के और लड़की के बारे में ज़रूरी जानकारी जुटाना बहुत ही आसान होता है। अगर दोनों परिवार सामाजिक, आर्थिक (financial) या किसी और पैमाने पर मेल नहीं रखते या लड़का-लड़की की उम्र, पढ़ाई या किसी और वजह से सही मेल नहीं होता तो ऐसे रिश्तों की बात वहीं खत्म कर दी जाती है और सिर्फ वही रिश्ते जहाँ पर सही तालमेल बैठता है शादी का रूप लेते हैं। इन शादियों में दोनों में से किसी भी पक्ष या दोनों पक्षों पर किसी भी तरह की जबरदस्ती या मानसिक, सामाजिक, आर्थिक या किसी भी और तरह के दबाव की कोई गुंजाईश नहीं है और ऐसी शादियाँ ना तो हमारे गुरूघर में की जाती हैं और ना ही इनकी इजाजत दी जाती है। यह शादियाँ सादगी से और किसी भी तरह के दिखावे के बगैर की जाती हैं। जहाँ तक मुमकिन हो पाता है इन शादियों में दहेज का बहिष्कार किया जाता है। दहेज जो आज हमारे समाज, देश और मानव जाति के लिए एक अभिशाप और कैंसर से ज़्यादा खतरनाक बीमारी बन चुका है और जिसने अनगिनत परिवारों और जिंदगियों को तबाह कर दिया है ऐसी गंदगी का हमारी गुरसंगत की शादियों में, हमारी जिंदगियों में कोई स्थान नहीं है। यह शादियाँ (आनन्द कारज ) एक ही पंडाल में सामूहिक (collective) रूप से धन धन श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी महाराज की हज़ूरी में की जाती हैं। यहाँ पर अमीर और गरीब, छोटे और बड़े या किसी भी और प्रकार का अन्तर नहीं किया जाता और स्थान से ही लड़कियों को चुन्नी और लड़कों को पगड़ी दी जाती है। आनन्द कारज के बाद शादी वाले सभी परिवार और जोड़े एक ही पंगत में बैठकर लंगर करते हैं। शादी के परिवार वालों और मेहमानों के रहने और लंगर इत्यादि का इंतज़ाम स्थान के द्वारा ही किया जाता है। इस प्रकार बैंड-बाजे, खाने और पार्टियाँ, मेहमानों के रहने, शादी की जगह और tent आदि के इंतज़ाम और बहुत से फिजूल खर्चों से बचा जाता है और आर्थिक (financial) पहलू से यह शादियाँ बेमिसाल हैं ।
इस प्रकार गुरसंगत के दो परिवार जिनका खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज तकरीबन एक ही जैसा होता है, जो एक ही गुरूघर को मानते हैं, एक साथ गुरूघर में सेवा और सिमरन करते हैं, जो एक दूसरे के सुख और दुख में शरीक होते रहे हैं अब एक दूसरे के समधी बनकर उनमें प्यार, भाईचारा, सहयोग और मेलमिलाप और भी बढ़ जाता है और ऐसी शादी का सीधा-सीधा असर दोनों परिवारों के बाकी बच्चों और निकट संबंधियों (immediate relatives & families) पर भी पड़ता है। चूंकि दोनों परिवारों के खान-पान और रीति-रिवाज तकरीबन एक से होते हैं, इसलिए लड़के और लड़की को आपस में और लड़की को ससुराल में घुलने-मिलने, ढलने (adjust) में ज्यादा दिक्कत नहीं आनी चाहिए। यही कारण है कि मैं इस बात पर बहुत जोर भी देता हूँ कि दोनों परिवारों को और लड़के-लड़की को आपस में जितना हो सके एक दूसरे के साथ बातचीत करके, एक दूसरे के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानकर, पूरी तसल्ली करने के बाद रिश्ते के लिए हाँ करनी चाहिए। अब इस शादी-शुदा जोड़े की होने वाली औलाद गुरसंगत के परिवार में जन्म लेती है और उसे पैदा होते ही माता-पिता, दादा और नाना, दोनों ही परिवारों की तरफ से गुरसंगत के संस्कार विरासत में मिलते हैं। यही बच्चे गुरूघर और गुरसंगत का भविष्य हैं और आने वाले वक्त में यही हमें, हमारी सोच, हमारे विचारों, संकल्पों और संस्कारों को जिंदा रखेंगे और आगे बढ़ाएँगे। मैं बार-बार आप लोगों को यही कहता हूँ कि अपने बच्चों को खूब पढ़ाएँ-लिखाएँ और उन्हें अच्छी से अच्छी और ज़्यादा से ज़्यादा तालीम दें ताकि मुकाबलों (competitions) से भरी मुश्किल दुनिया में वह अपने career और रोज़ी-रोटी कमाने के लिए किसी से भी पीछे ना रहें और पढ़ लिख कर गुरसंगत के एक अच्छे सदस्य और समाज और देश के इज्ज़तदार और ज़िम्मेदार नागरिक बनें। उन्हें बचपन से ही गुरसंगत की मर्यादापूर्ण जिंदगी और जीवनशैली का ज्ञान दें। सेवा, सिमरन, बड़ों और सभी की इज़्ज़त और मदद करना सिखाएँ। इसलिए मैंने नवयुवामंडल की शुरूआत की ताकि हमारी भावी पीढ़ी आने वाले समय के लिए सही तरीके से तैयार हो सके। आप सबसे मेरी विनती और सलाह है कि बच्चों को कॉलेज, universities या दूसरे शहरों में पढ़ने भेजने से पहले उन्हें गुरसंगत के संस्कारों और शादियों, इनके कारण, अहमियत और फायदों के बारे में बताएँ। पढ़े-लिखे, गुरसंगत के विचारों और संस्कारों से वाकिफ बच्चों की शादी गुरसंगत के बाहर होना कोई अच्छी बात नहीं है। मैं बच्चों की गुरसंगत के बाहर शादी के खिलाफ तब नहीं हूँ अगर शादी के बाद भी वो और उनकी होने वाली औलाद अपने गुरूघर और स्थान से जुड़े रहें और मर्यादापूर्वक मानते रहें। ऐसी शादियों के बाद अगर कोई बच्चा गुरूघर से टूट जाए तो वह मेरे और आप सबके लिए दुख का एक बहुत बड़ा कारण है। मुझे याद है कि तीन-चार साल पहले एक city function के दौरान मैं और बीबी जी एक शहर में रूके हुए थे और गुरसंगत की एक बच्ची जिसकी शादी गुरसंगत के बाहर एक ऐसे परिवार में हो गयी जो किसी और स्थान को मानते हैं वह तीन दिन तक लगातार हमारे पास बैठकर रोती रही कि किसी तरह से उसे गुरसंगत में वापस जोड़ा जाए। उस दिन के बाद मेरी यह सोच कि हमारे बच्चों की शादियाँ गुरसंगत में ही होनी चाहिएँ और भी मज़बूत हो गयी।
गुरसंगत की हर शादी कामयाब होगी और इन शादियों में सबकुछ ठीक-ठाक होगा, कभी भी कोई ऊँच नीच या अनबन नहीं होगी यह सोचना बिल्कुल गलत है। जैसा कि पिछले अंकों में हम विचार कर चुके हैं कि हर शादी में कुछ न कुछ गलतफहमी, अनबन, छोटा मोटा झगड़ा, किसी बात पर एकमत ना होना या मनमुटाव लगा ही रहेगा। लेकिन शादी खराब करने के कुछ मुख्य कारण जैसे कि शादी से पहले कुछ छुपाना, दहेज या किसी और चीज़ का लालच, दाम्पत्य विश्वासघात आदि जिनके बारे में हमने पिछले अंक में चर्चा की थी, गुरसंगत की शादियों में ऐसे कारणों की वजह से शादी खराब होने की सम्भावना बहुत कम हो जाती है। अगर किन्हीं कारणों से ऊँच नीच हो भी जाए तो दोनों पक्ष या परिवार गुरसंगत से जुड़े हुए होने के कारण मामले को बहुत आराम और शांति से सुलझा सकते हैं। ऐसे कई मामलों में गुरसंगत के कुछ प्रमुख सदस्यों और बुजुर्गों ने काफी अहम भूमिका निभाई है और दोनो पक्षों में सुलह करवायी है। गुरसंगत की शादियों के आज तक के इतिहास में मुश्किल से चार या पाँच ऐसी शादियाँ होंगी जो बदकिस्मती से कामयाब नहीं रही होंगी। लेकिन आजकल के माहौल और बदलते हुए हालातों को देखते हुए नाकामयाबी का यह अनुपात (ratio) नगण्य (negligible) है।
दुनिया में कोई भी परिवार और शादी ऐसी नहीं है जहाँ सुख और दुख ना आएँ। कई बार ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं कि किन्हीं कारणवश दोनों में से एक साथी में कुछ शारीरिक कमी होती है या आ जाती है जो कि बहुत स्वाभाविक (natural) है। आम शादियों में यह शादियाँ खराब और टूटने का अहम कारण है। मुझे गुरसंगत के कई ऐसे मामले पता हैं जहाँ पर ऐसे कारणों के बावजूद भी शादियाँ बहुत कामयाबी से निभाई जा रही हैं। मुझे नाज़ है अपने ऐसे बच्चे बच्चियों पर जो ऐसी वजहों को आपसी समझदारी और रजामंदी से सुलझाकर इस रिश्ते की और गुरूघर की गरिमा को बनाए हुए हैं।
प्यारी साध संगत जी, मुझे पूरी उम्मीद है कि आप सब गुरसंगत की शादियों की अहमियत और फायदों से अच्छी तरह से वाकिफ हो गये होंगे और जान गये होंगे कि गुरूघर और गुरसंगत को आगे बढ़ाने और उनकी तरक्की के लिए गुरसंगत की शादियाँ बहुत ज़रूरी हैं। आप यह भी समझ गये होंगे कि हमें अपने बच्चों को बचपन से ही गुरूघर के तौर तरीकों और संस्कारों की तालीम देनी शुरू कर देनी चाहिए और सही वक्त पर उन्हें गुरसंगत की शादियों के बारे में बताकर गुरसंगत में शादी करने के लिए प्रोत्साहित (motivate) और तैयार करना चाहिए। मैं अपने नवयुवामंडल और युवामंडल के युवाओं से कहूँगा कि इस संदेश को गम्भीरता (seriously) से पढ़ें और इस पर अमल करें। आखिर में मैं तीसरे पातशाह गुरू अमरदास जी महाराज की बाणी फिर से दोहराऊँगा :
धन पिरु एहि न आखीअनि बहनि इकठे होइ ।
एक जोति दुइ मूरती धन पिरु कहीऐ सोइ ।।
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