संदेश

 

संख्या: 13

 

प्यारी साध संगत जी,

वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरू जी की फतेह |

इस अंक में हम "श्रद्धा" पर चर्चा करेंगे ।

हरिजन के वडभाग वडेरे जिन हरि हरि सरधा हरि पिआस ।

(श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी)

श्रद्धा  

श्रद्धा इंसान का जीवन, जीवन-शक्ति है। आस्तिकता का प्राण है। ईश्वर को अपने अंदर बसाने का, हमेशा उसके साथ रहने का सबसे आसान और सरल उपाय है। गुरमुखों और आस्तिकों की प्राण वायु है श्रद्धा। यह वह रोशनी है जो सत्य की प्राप्ति और परमात्मा से मिलन वाले रास्ते को हमेशा रोशन रखती है। इंसान जब माया की चमक दमक में पड़ जाए या विकारों की राह पर भटक जाए तो माँ की तरह बच्चे के मुँह पर ठण्डे पानी के छींटे मारकर उठा देने वाली शक्ति यही श्रद्धा है।

श्रद्धा शब्द बना है "श्रुत" यानि कि "सत्य" और "धा" अर्थात् "धारण करना" से। बहुत से विद्वान और लेखक श्रद्धा को विश्वास, faith मानते हैं। हिन्दी शब्दकोष (dictionary) में इसका अर्थ है आदरपूर्ण विश्वास। अंग्रेजी में श्रद्धा को reverence कहते हैं। श्रद्धा इंसान के अंदर उठने और पैदा होने वाली एक बहुत ही पवित्र और सुखद भावना है। अक्सर इंसान ईश्वर, गुरू, इष्ट, किसी महापुरूष या किसी पवित्र स्थान के लिए श्रद्धा रखता है। श्रद्धा वो भाव है जो इंसान के मन, बुद्धि और आत्मा को पवित्र करके निर्मल बना देता है। इंसान में श्रद्धा का होना उसे गुरमुख बना देता है।

गुर सरधा द्रिड़ भगति कमावै।

वही खालसा सद गति पावै।।

(रहतनामा भाई देसासिंह जी)

मेरा मानना है कि जब इंसान में ईश्वर, अपने गुरू या इष्ट के लिए विश्वास जागने लगे या जाग जाए, उसके मन-मंदिर में उनके प्रति प्यार, आदर-सत्कार उमड़ने लगे तो उसके अंदर पैदा होती है श्रद्धा। जैसे-जैसे उसकी श्रद्धा बढ़ती जाती है उसका ईश्वर, गुरू और इष्ट के लिए समर्पण बढ़ता चला जाता है और उसका विश्वास अब अटूट विश्वास बनकर आस्था का रूप धारण कर लेता है। श्रद्धा में गज़ब की ताकत है। त्रेता से लेकर आज तक कोई भी युग उठाकर देख लें, इतिहास श्रद्धा के उदाहरणों से भरा पड़ा है। भगत ध्रुव की असीम श्रद्धा ने उसे अमर कर दिया। एक भीलनी जिसका नाम शबरी था उसकी श्रद्धा का ही नतीजा था कि तीनों लोकों के मालिक भगवान राम ने उसके झूठे बेरों को बहुत प्यार से खाया और उसको भव-सागर से पार कर दिया। एकलव्य की श्रद्धा ही थी जिसने मिट्टी की एक मूर्ति को साक्षात् गुरू बना दिया और जो शिक्षा उसने उस मूर्ति से प्राप्त की वो शिक्षा और लाभ अर्जुन और बाकी के सभी शिष्य जीवित और उपस्थित द्रोणाचार्य से न ले सके। मीरा की श्रद्धा ही थी जिसने पत्थर के एक टुकड़े को भगवान कृष्ण बना दिया। श्रद्धा का ही प्रताप था कि रामकृष्ण परमहंस की पत्थर की देवी माँ काली बन गईं और देवी के लिए विवेकानन्द की श्रद्धा ही थी जिसने उन्हें भक्ति और शक्ति से नवाज़ कर धन्य कर दिया। श्रद्धा का ही चमत्कार था कि भगत धन्ना ने भगवान कृष्ण से अपने खेत जुतवाए और पशु भी चरवाए। श्रद्धा का इंसान में पैदा होने के लिए विश्वास और प्रेम के अलावा और दो गुणों का होना बहुत ज़रूरी है और वो हैं सरलता और पवित्रता। इंसान छल-कपट, चालाकियों और बुरे कामों से जितना दूर रहता है वह उतना ही निर्मल और शांतचित्त होता है। मन और बुद्धि की पवित्रता और सफाई इंसान के व्यवहार और अन्तःकरण को श्रद्धा और आस्था के लिए पूरी तरह से तैयार कर देती हैं। हिन्दू धर्म में मान्यता है कि माता पार्वती जगत जननी हैं, आदि शक्ति हैं और श्रद्धा का प्रतीक हैं और भगवान शिव, विश्वास यानि कि आस्था के प्रतीक हैं। जिस प्रकार शिव और पार्वती के मिलन से सृष्टि की रचना हुई है, उसी तरह श्रद्धा और आस्था के आपसी साथ से ही इंसान के अन्तःकरण की रचना और आत्मिक, रुहानी तरक्की होती है। गीता के मुताबिक इंसान श्रद्धामय ही है। जिसकी जैसी श्रद्धा है, वह वही है। जीव की स्थिति श्रद्धा से लिपटी हुई है। जैसी श्रद्धा, वैसी स्थिति, वही उसका स्वरूप होता है।

श्रद्धा साधक को, सेवादार को सच्चाई, साधना, सेवा और भक्ति के रास्ते पर साधे रखती है, संभाले रखती है। श्रद्धा की ताकत से ही मैला मन और चालाक बुद्धि विकारों से बच सकते हैं और ईश्वर की राह पर आगे बढ़ते हैं। श्रद्धा इंसान के अंदर ईश्वर और गुरू के प्रेम और समर्पण की भावना को कई गुना बढ़ा देती है जिससे इंसान के अंदर आस्था से भरी एक बेफिक्री आ जाती है, वो निर्भय हो जाता है, उसकी चिंताएं दूर होने लगती हैं, आत्म-विश्वास और कुछ करने का संकल्प मज़बूत होने लगता है। श्रद्धा से इंसान के मन में संतोष पैदा होने लगता है, उसके चरित्र में सात्विकता आने लगती है, विचारों में परिपक्वता (maturity), पक्कापन झलकने लगता है। उसकी हड़बड़ाहट, चंचलता, अविश्वास, अंदरूनी हलचल, मुश्किलें आदि दूर होने लगती हैं और उसका जिंदगी के प्रति नज़रिया सकारात्मक (positive) होता चला जाता है। श्रद्धा इंसान के चरित्र और व्यक्तित्व में स्थिरता, गंभीरता और ठहराव लाती है। इंसान दिखावे, होड़, ईर्ष्या आदि से ऊपर उठने लगता है। श्रद्धा वो तप है जो इंसान को ईश्वरीय हुक्म और गुरु की आज्ञा का पालन करने की प्रेरणा देता है । उसको आलस और भोग-विकारों से बचाती है। कर्तव्य पालन में उसका मार्गदर्शन करती है, उसको धर्म, सेवा और दया सिखाती है। श्रद्धा इंसान की अन्तरात्मा को प्रफुल्ल, खुश रखती है और इन्द्रियों पर लगाम, अंकुश लगाती है। यह इंसान के आत्मगुणों का विकास करती है। जब इंसान ईश्वर, गुरू या इष्ट की श्रद्धा में डूबकर अपनी साधना और सेवा करता है तो श्रद्धा ऐसी साधना, सिमरन और सेवा का फल कई गुना बढ़ा देती है ।

सिख धर्म में श्रद्धा का बहुत महत्व और खास स्थान है। गुरु भक्ति और गुरू आज्ञा की पालना की हर मिसाल श्रद्धा से लबालब भरी हुई है। गुरु अंगद देव जी महाराज की श्रद्धा इतनी उच्च थी कि गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए जब उन्होंने खुशी-खुशी जिस मुर्दे को खाना चाहा, वह कड़ाह प्रशाद बन गया। साठ साल से ज़्यादा की वृद्ध अवस्था में रोज़, आधी रात को, कई कोस दूर से अपने गुरू महाराज जी के नहाने के लिए नदी से गागर में पानी भरकर लाना गुरु अमरदास जी महाराज की बेमिसाल श्रद्धा का प्रमाण था । लगातार थड़े का बनाना, हर बार नाकामयाब होकर बिना किसी दुविधा और संदेह के दोबारा बनाना, गुरू रामदास जी महाराज की अपने गुरू में अटूट श्रद्धा का नमूना है। गुरू अर्जन देव जी महाराज की अपने गुरूपिता में असीम श्रद्धा ही उनके विरह का कारण थी कि उन्होंने खत लिखते-लिखते ही गुरबाणी की महान रचनाओं की शुरूआत कर दी।

सरधा लागी संग प्रीतमै इकु तिलु रहणु न जाइ ।

(श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी)

गुरु की आज्ञा का पालन करने के लिए बहुत और सबसे ज़रूरी है शिष्य में गुरु के प्रति श्रद्धा और आस्था का होना। भाई सोमा शाह जी की बेमिसाल सेवा और गुरू के प्रति पूर्ण समर्पण उनकी अपने गुरू में अथाह श्रद्धा को जताता है।

गुरचरणी इक सरधा उपजी मै हरि गुण कहते त्रिपति न भईया |

(श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी)

सिख धर्म के हर पहलू में श्रद्धा का वास है। श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी महाराज में अनगिनत बार श्रद्धा का वर्णन किया गया है।

जिन सरधा राम नामि लगी ।

तिन दूजै चितु न लाइआ राम ।।

(श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी)

सिख धर्म को मानने वाले सभी अनुयायियों की अपार और अथाह श्रद्धा ही है कि यह दुनिया का एकमात्र धर्म है जहाँ पर धार्मिक ग्रन्थ को गुरू का दर्जा दिया गया है और हमेशा उन्हें आदर-सत्कार के साथ "श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी महाराज" कहकर सम्बोधित किया जाता है। उन्हें आदर-सत्कार के साथ झुककर सिर पर सवार करना, हमेशा उन्हें ऊँचे स्थान पर विराजमान करना, हमेशा उनकी हज़ूरी में सिर को ढ़क कर अदब के साथ पेश होना और अनगिनत मर्यादाओं के साथ उनकी सेवा करना और उनके हुक्म की पालना करना दर्शाता है उनके सिक्खों की श्रद्धा के अपार महासागर को जिसकी वजह से आज सिख धर्म दुनिया के सबसे नये धर्मों में एक होने के बावजूद भी दुनिया के सबसे बड़े दस (10) धर्मों में स्थान रखता है और कमाल की एक और बात, गुरबाणी फरमाती है कि साध संगत करने से भी श्रद्धा उपजती है :

मिलि संगति सरधा ऊपजै गुर सबदी हरि रसु चाखु ।

(श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी)

प्यारी साध संगत जी,

आप सभी श्रद्धा के महत्व और इसकी महिमा से अच्छी तरह से वाकिफ हो चुके होंगे । श्रद्धा वो ताकत है जो विचारों को ग्रन्थ और पत्थर को भगवान बना देती है। ईश्वर जंगलों और गुफाओं में नहीं बल्कि आपकी श्रद्धा में विराजते हैं। जितनी आपकी श्रद्धा बढ़ेगी आप ईश्वर और गुरू को उतना ही नज़दीक पायेंगे । अगर नियति में इंसान के लिए कुछ भी नहीं है तो भी सच्ची श्रद्धा में इतनी ताकत है कि वह भगवान और गुरू को इंसान की गुहार सुनने के लिए मजबूर कर देती है और खुदबखुद कामयाबी और साधन उसके लिए जुटते चले जाते हैं।

आखिर में मैं आपको श्रद्धा का एक और ज़बरदस्त उदाहरण देना चाहूँगा । आप सब जानते हैं कि जून 2013 में उत्तराखण्ड में स्थित श्री केदारनाथ धाम और गोबिन्द घाट (जहाँ से श्री हेमकुण्ड साहिब की यात्रा शुरू होती हैं) और बहुत दूर दूर तक के इलाकों में एक भयंकर आपदा आयी जिसमें दुर्भाग्यवश हज़ारों लोगों ने जान गंवाई और उसमें बेअन्त जान-माल का नुकसान हुआ। लेकिन देखिए श्रद्धा का चमत्कार, आपदा के सिर्फ चार सालों के अंदर ही लाखों की तादाद में संगत और श्रद्धालु लोग अच्छे और खराब मौसम में, भारी बारिशों और landslides (भू-स्खलन, चट्टानों का गिरना) के बावजूद भी उत्तराखण्ड के सभी तीरथों पर इस तरह से उमड़ रहे हैं जिसका कोई जवाब, मिसाल या सानी नहीं है ।

Shradha is the bedrock of all religions.

श्रद्धा हर धर्म का आधार है और जब तक दुनिया में श्रद्धा जिंदा है तब तक धर्म, अच्छाई और सच्चाई की सत्ता कायम रहेगी।

आखिर में मैं गुरू महाराज जी से हम सबके लिए यह अरदास करता हूँ :

अंतरजामी पुरख बिधाते सरधा मन की पूरे ।

नानक दासु इहै सुखु मागे मो कउ करि संतन की धूरे ।।

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(श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी)

 

वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह।
गुरसंगत का दास
संतरेन डाॅ० हरभजन शाह सिंघ, गद्दी नशीन