सेवा परमोधर्म अर्थात् सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है। सेवा संस्कृत का शब्द है जिसका मतलब है "बिना स्वार्थ के किया गया काम"। हमारे देश के इतिहास में सेवा का चलन उतना ही पुराना है जितने की पुराने हमारे धर्म हैं। पुरातन भारत में सेवा किसी एक व्यक्ति या समुदाय की मदद और समाज की उन्नति और बढ़ोतरी के लिए किए गए निस्वार्थ कार्य थे जो कि परोपकार की भावना से किए जाते थे। हमारे सिख धर्म में सेवा का बहुत-बहुत महत्व है। पुरातन भारत में "Physical Labour" यानि कि शारीरिक मेहनत या श्रम के कामों को हीन समझा जाता था व वह केवल समाज के नीचे के वर्गों के लिए था। लेकिन हमारे सभी गुरुमहाराज जी ने ऊँच-नीच, जाति-पाति की सभी सीमाओं को तोड़कर "Dignity of Labour" यानि कि मेहनत से किए गए सभी कामों को पवित्र मानकर उनको बहुत इज्ज़त बख़्शी और बहुत ऊँचा स्थान दिया। आने वाले समय में सिख धर्म ने सेवा की ऐसी नायाब मिसालें और प्रथा कायम की कि आज सेवा के क्षेत्र में वह सबसे आगे है। अक्सर सेवादारों को यह अरदास करते सुना जाता है कि “हे प्रभु, हमें अपने सेवकों का सेवक, दासों का दास बनाओ", इससे पता चलता है कि सिख धर्म में सेवा व सेवक ही सबसे महत्वपूर्ण हैं। गुरमत के अनुसार बिना किसी फल की इच्छा के अपने गुरुमहाराज, गुरुघर, गुरस्थान, संगत या दूसरों के लिए किए गए हर कार्य को सेवा कहते हैं। ऐसा नहीं है कि हर सेवा बिना इच्छा या स्वार्थ के होती है। लेकिन ऐसा माना जाता है कि अगर सेवा में कोई इच्छा या स्वार्थ शामिल हो तो उस सेवा का महत्व व फल कम हो जाता है।
सेवा करने से इन्सान में नम्रता पैदा होती है और चित्त में शुद्धता आती है। नम्रता और हृदय की शुद्धता इन्सान के अहँकार और अभिमान को खत्म कर देते हैं। सच्ची और शुद्ध सेवा इन्सान को मानसिक और आत्मिक सुख और शान्ति प्रदान करती है और एक सच्चा, नम्रता से भरा हुआ, अहँकार से रहित सेवादार ही अपना पराया, ऊँच नीच और सारे भेदभाव भुलाकर हर इन्सान में अपने गुरु महाराज के दर्शन करता है। इसकी जीती जागती मिसाल हैं भाई कन्हैया जी जिन्होनें लड़ाई में दुश्मनों की सेवा व मदद की और दसवें पातशाह धन धन गुरु गोबिन्द सिंह जी को बताया कि "हे पिता, मुझे तो हर घायल और ज़रुरतमंद में आप ही के दर्शन हो रहे थे" व गुरु महाराज की कृपा के वह ऐसे पात्र बने कि सिख धर्म के इतिहास में वह सदा के लिए अमर हो गए। सेवा का ही प्रताप था कि भाई लहणा "गुरु अंगद देव जी" बन गए ; 72 साल की वृद्ध अवस्था में भाई अमर दास जी "गुरु अमरदास जी" बन गए व भाई जेठा “गुरु रामदास जी" हो गए। सिख धर्म भाई बन्नो, भाई माधो, भाई मन्झ, भाई मीहाँ, भाई सोमा शाह, भाई साल्हो, भाई बहलो जी इत्यादि अनगिनत महान सेवादारों की मिसालों से भरा हुआ है।
सेवा तन, मन व धन से की जाती है। तन व शारीरिक श्रम से की जाने वाली सेवा अति उत्तम मानी गयी है क्योंकि इसमें सभी सेवादार अपनी सामाजिक हैसियत को भूलकर, निमाणे बन कर, एक समान होकर सेवा करते हैं। मन से की गई सेवाओं में इन्सान अपनी Creative यानि कि रचनात्मक जैसे कि लेखन, पाठन, संगीत इत्यादि या अन्य कलाओं व Administrative abilities यानि कि प्रबन्धकीय क्षमताओं से जैसे कि कार्य करवाना, योजनाएँ बनाना व उन पर अमल करना व करवाना, मार्ग दर्शन व मदद करना व अपनी साफ सुथरी भावना से किसी भी काम में जुड़ा हुआ महसूस करना इत्यादि हैं। धन को यूँ तो हाथ की मैल कहते हैं लेकिन दुनियावी कामों के लिए इसकी बहुत ज़रुरत और महत्व है। इसी वजह से सिख धर्म में दसवन्द का प्रचलन किया गया। धन के रुप से की गई सेवा से ही धर्म व समाज के व सभी के भले के लिए किए जाने वाले काम पूरे हो पाते हैं।
सेवा करने के लिए इच्छा शक्ति व स्वार्थ रहित भावना का होना बहुत ज़रुरी हैं। कई बार हम यह मान लेते हैं कि हम कमज़ोर या गरीब या मजबूर हैं व हम जैसे असहाय क्या सेवा करेंगे। हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि ईश्वर के द्वारा बनाया गया हर इन्सान महत्वपूर्ण है और उसमें कोई न कोई क्षमता अवश्य होती है। हरेक इन्सान को अपनी हदों में रहकर अपने गुरुघर, समाज व धर्म के लिए जो भी बन पड़े अवश्य करना चाहिए। याद रखें सेवा के रुप में किया गया कोई भी काम छोटा नहीं होता । सेवा की कोई सीमाएँ नहीं हैं। गुरुघर में सेवा की कोई कमी नहीं है। ज़रुरत है तो सिर्फ इच्छा शक्ति की। “जोड़ा घर ; साईकल व Vehicle Stand ; हर प्रकार की Security ; लंगर की रसद लाना, उसे ढंग से Store करना, बनाना व बांटना ; बर्तन धोना व सम्भालना ; ईंधन इकट्ठा करना ; बिस्तरे बांटना व सम्भालना ; हर प्रकार की सफाई करना ; कपड़े धोना ; शामियाने लगाना व सम्भालना ; पानी व बिजली की व्यवस्था करना ; पाठ व कीर्तन करना ; प्रसाद बनाना व बांटना ; गुरुघर के लिए धन एकत्रित करना ; गुरमत का प्रचार करना ; गुरुघर के इतिहास से सबको अवगत कराना ; नव युवाओं को गुरुघर की मर्यादा व इतिहास बताना ; नव युवाओं व गुरसंगत को गुरमुखी सिखाना ; गुरसंगत के सुख दुःख में शामिल होना व ज़रुरत पड़ने पर दूसरों की हर तरह से मदद करना ; दूसरों को सेवा के लिए प्रेरित करना ; गुरुद्वारा साहिब व अन्य गुरस्थानों की यथासम्भव देखभाल करना इत्यादि" अनगिनत सेवायें उपलब्ध हैं।
लेकिन मैं बहुत सख्ती से यह भी मानता हूँ कि वह सेवा, सेवा नहीं है जो :
- अपनी सामाजिक हैसियत को बढ़ाने के लिए की जाए।
- जिसका खुद बखान व प्रशंसा की जाए।
- जिसको अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझा जाए।
- जिसमें दूसरों को नीचा दिखाया जाए या ईर्ष्या या झगड़ा किया जाए।
- दूसरों के अधिकार छीने जाऐं या किसी और का Credit यानि की श्रेय लिया जाए।
- खुद की सेवा को अगर श्रेय न मिलें तो दुखी हों।
- या खुद को सबसे उत्तम सेवादार समझा जाए।
मैं आप सभी से विनती करूंगा कि कृपा करके ऐसी भावनाओं व शंकाओं से बचें व दूसरों का भी मार्गदर्शन करें।
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