"दुइ कर जोड़ि करउ अरदासि ।
तुधु भावै ता आणहि रासि ।। "
"तुधु आगे अरदासि हमारी जीउ पिंडु सभु तेरा ।
कहु नानक सभ तेरी वडिआई कोई नाउ न जाणै मेरा ।। "
अरदास वह याचना, विनती, जोधड़ी है जो एक व्यक्ति, सर्वशक्तिमान परम पिता परमेश्वर, अपने गुरू महाराज जी के सामने करता है। यह वह पुकार है, गुहार है जो एक निर्बल प्राणी अपने रचियता के आगे लगाता है। इसी पुकार को, याचना को अरदास कहते हैं । अरदास Persion / फारसी के एक शब्द Arazdashat / अरज़दाशत से बना है। अरज का मतलब है "विनती" और दाशत का मतलब है "पेश करना या रखना" । अतः अरज़दाशत का मतलब हुआ किसी के सामने अपनी विनती रखना; अपने से उच्च, ऊँचे पदाधिकारी के सामने अपनी अर्जी / याचिका रखना; अनुनय विनय करना। अरदास शब्दों की ही नहीं बल्कि आत्मा की पुकार है। कंठ से, गले से निकली हुई पुकार तो केवल कुछ दूर तक ही जा सकती है लेकिन आत्मा से, मन से निकली हुई पुकार हज़ारों, लाखों आकाशों और आकाश गंगाओं को भेदती हुई उस परमपिता परमात्मा के चरणों में पहुँच जाती है जिसने इस ब्रह्माण्ड, पृथ्वी और मनुष्य की रचना की है। अरदास शब्द चाहे किसी भी भाषा से आया हो, यह वह साधन है जिसके द्वारा निर्बल मनुष्य अपने मालिक के सामने, पूर्ण रूप से आत्मसमर्पण करके उसकी रहमत का पात्र बनता है। अरदास वो दस्तक है जिससे दरगाह का दरवाजा खुलता है। यह वह चाबी है जो रहमतों का, बख्शीशों का भण्डार खोलती है। यह वह तरीका है जो बिना किसी बिचौलिये के मनुष्य को एक ही क्षण में ईश्वर से, अपने गुरू से एकाकार कर देता है। अरदास सिख के जीवन का आधार है। यह वह नींव है जिसके ऊपर रखी गई सेवा और सिमरन रूपी इमारतें बुलंदियों को छू सकती हैं। अरदास मनुष्य को ईश्वर से अपनी ज़िन्दगी के हर पहलू पर बातचीत, विचार करने का माध्यम है। गुरू महाराज जी फ़रमान करते हैं :
"बिघनु न कोऊ लागता गुर पहि अरदासि ।
रखवाला गोबिंद राइ भगतन की रासि ।।"
"सुखदाता भै भंजनो तिसु आगै करि अरदासि ।
मिहर करे जिसु मिहरवानु तां कारजु आवै रासि ।।"
अरदास एक प्रक्रिया या प्रथा मात्र ही नहीं है, यह सिख धर्म की मूल संस्कृति की परिचारक भी है। इसमें न सिर्फ अपने लिए, बल्कि स्वजाति, समाज व सम्पूर्ण मानव जाति के लिए शुभ, कल्याण व मंगल की कामना और प्रार्थना की जाती है। अरदास करने से मनुष्य के चित्त व दिमाग में शांति आती है; पापों और विकारों, खासतौर पर अहम और अहंकार का नाश करने का ज़रिया है; इससे नम्रता, दया और स्वाभिमान का उदय होता है; यह व्यक्ति को याद दिलाती है कि एक अच्छा इंसान बनने के लिए कितने समर्पण की आवश्यकता है; अराधना और अनुशासन में रहने की क्रिया है; आस्था और शुभ भावनाओं को मजबूत करने का मार्ग है, इंसान के अन्दर असीम ऊर्जा का संचार करती है और आत्मिक रूप से उसे उत्कर्ष बनाती है। इनके अलावा अरदास करने के कुछ और मुख्य कारण व फायदे हैं :
• हमें याद दिलाना कि हमारी उत्पत्ति उस सर्वशक्तिमान ईश्वर ने की है व हमें सबकुछ उस ही से प्राप्त हुआ है व हमारा सबकुछ उस ही को समर्पित है।
• सबका कल्याण व शुभ की कामना करना ।
• हमें महात्माओं एवं साध-संगत का साथ मिले।
• हमारी दुनियावी इच्छाएं, मनोकामनाएं और ज़रूरतें पूरी हों ।
• ईश्वर हर घड़ी हमारे अंग-संग हों व हर स्थिति में हमारी रक्षा करें व जन्म और मृत्यु के चक्र से हमें मुक्ति मिले।
• हमें मोह-माया व विकारों के बन्धन से मुक्ति मिले और हमेशा सही रास्ता दिखाने के लिए सद्बुद्धि की प्राप्ति हो ।
• हमें सेवा और सिमरन की बख्शीश और सद्गति / मोक्ष की प्राप्ति हो ।
• ईश्वर का हमें दी हुई सभी दातों का धन्यवाद / शुक्राना करने के लिए।
• हमारे पूर्वजों की उपलब्धियों और कुर्बानियों को और इतिहास व धर्म की सच्ची आत्माओं को याद करने का अवसर प्रदान करती है।
लगभग हर धर्म में अरदास की प्रथा प्रचलित है। हिन्दू धर्म में प्रार्थना, ईसाई धर्म में Prayer व इस्लाम में दुआ, अरदास के ही विभिन्न नाम हैं, मगर इनको करने के कारण व भावना एक समान ही है। सिख धर्म में अरदास को बहुत ऊँचा दर्जा प्रदान किया गया है। किसी भी तकलीफ, दुःख-दर्द, मुश्किल व ज़रूरत के समय अरदास का आसरा लिया जाता है। प्राणी के अकाल चलाने के समय अंतिम अरदास की जाती है। बच्चे के जन्म, चोले, पढ़ने जाते समय, सगाई, शादी व हर शुभ अवसर पर घर से काम पर या सफर पर जाते हुए, नया कारोबार या घर में प्रवेश करते हुए, यहाँ तक कि खाना खाने से पहले, हर मौके पर इंसान अरदास करता है। धार्मिक रस्मों, पाठ व नितनेम, कीर्तन, कथा इत्यादि के बाद, गलतियों की माफी के लिए, ईश्वर की हर दात का शुक्राना करने के लिए या यूं कहें कि मनुष्य के जीवन की हर Activity / क्रिया के साथ अरदास करना एक सिख का परमधर्म है।
अरदास ऐसे करें जैसे कि एक छोटा बच्चा अपने माता-पिता (जिन्हें वह बहुत प्यार करता है व अपनी हर ज़रूरत के लिए उन पर आश्रित है) से हर समय अपने दिल और दिमाग की हर बात सांझी करता है। ईश्वर हर भाषा समझता है उसे पुकारने के लिए भाषा का ज्ञान और अलंकारों की ज़रूरत नहीं है। वह भाव और प्रेम की भाषा जानता है। दुनिया की पहली अरदास "बच्चे का रोना है"। उसका रोना अपनी माँ के लिए भूख लगने की या किसी भी तरह की परेशानी की पुकार है, अरदास है, जिसे माँ कभी भी अनसुना नहीं करती। उसी तरह हमारी अरदास भी बिल्कुल शुद्ध व सच्ची होनी चाहिए। अरदास शरीर का दण्डवत् या सही शब्दों का चयन नहीं है, यह तो आत्मा का ईश्वर को सजदा है। सच्ची अरदास के लिए शुद्ध भावना, पूर्ण आत्मसमर्पण, ज़बरदस्त अटूट विश्वास और आस्था की ज़रूरत है। और ज़रूरत है ईश्वर के हर हुक्म और भाणे को मानने वाले शुद्ध हृदय और निर्मल बुद्धि की। सिर्फ ईश्वर को ही मालूम है कि हमें कब और किस चीज़ की ज़रूरत है; कौनसी वस्तु हमारी ज़रूरत है और कौन सी इच्छामात्र; किसमें हमारी भलाई है। एक सच्चे और दृढ़ अरदासी को ईश्वर व उसके मुर्शद का हर फैसला बिना किसी शंका के मंजूर होता है। वह अरदास की पूर्ति को मालिक की दात व अपूर्ति को उसका हुक्म मानता है और अपनी बेबसी और लाचारी से निराश नहीं होता अपितु उससे प्रेरणा लेकर अपने आराध्य में, मुर्शद में अपना विश्वास और दृढ़ करता है। अरदास सिर्फ अपने या अपने प्रियजनों की ज़रूरतों या मनोकामनाओं के लिए ही नहीं बल्कि सरबत के भले और कल्याण के लिए, हर दीन-दुःखी, ज़रूरतमंदों के लिए भी की जानी आवश्यक है। अरदास ईश्वर के प्रति प्यार, मिलाप, आत्मिक शुद्धि व जागृति के लिए भी करनी चाहिए ।
अरदास की सबसे बड़ी दुश्मन है शंका और डोलता विश्वास । जहाँ पर भी इंसान के हृदय में ज़रा सी भी शंका उत्पन्न हो या उसका विश्वास डोल जाए तो वह अरदास सही तरीके से फल नहीं देती। सच्चे हृदय, पूर्ण आत्मसमर्पण और दृढ़ विश्वास से की गई अरदास चाहे वह फिर अबला द्रौपदी की चीर-हरण के समय या भाई मक्खन शाह लुबाने की खतरनाक तूफान में फंसकर या राजा रणजीत सिंह की उफनते दरिया में की गई हो वह दरगाह तक ज़रूर पहुँचती है और पूरी होती है। अरदास झुककर, निमाणेपन से, दीन-भाव में रीझकर करनी चाहिए। व्यक्तिगत रूप से की गई अरदास से सामूहिक रूप से की गई अरदास विशेषतः जब साध-संगत एक साथ मिलकर अरदास करे तो वह बहुत शक्तिशाली एवं प्रभावशाली होती है और बहुत जल्दी फलीभूत भी होती है।
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हालांकि विभिन्न धर्मों में अरदास करने की विधि व समय निश्चित किया गया है लेकिन सच्चे हृदय से की जाने वाली अरदास का कोई समय नहीं होता क्योंकि अरदास तो हृदय की पुकार है, भावनाओं का खुलासा और समर्पण है और भावनाऐं समय और विधिओं की गुलाम नहीं होतीं । अरदास कहीं पर भी, किसी भी समय व हर परिस्थिति में की जा सकती है। फिर भी गुरमत व प्रचलन के अनुसार सुबह "अमृतवेले " जिस समय व्यक्ति निद्रा व आराम से उठकर कामकाज की तरफ व शाम को "संध्यावेले" जब कामकाज से आराम की तरफ जा रहा होता है अरदास के लिए बहुत उपयुक्त हैं। किसी ने बहुत खूब कहा है कि अरदास हमारे दिन की चाबी और रात का ताला होना चाहिए। जिसका दिन अरदास से शुरू होता है उसकी किरत वाहेगुरू की हज़ूरी में होती है और जिसकी संध्या या रात अरदास से खत्म होती है उसकी नींद वाहेगुरू की गोद में होती है। वैसे तो इन्सान दुःख के समय अरदास ज़रूर करता है लेकिन अगर वह अरदास को हर समय व हर परिस्थिति में अपनी जीवन संगिनी बना ले तो ईश्वर उसको इतनी शक्ति प्रदान कर देते हैं कि उसे दुःख के समय का पता भी नहीं चलता। सच्चे हृदय से की जाने वाली अरदास के लिए किसी विशेष स्थान या मुद्रा की आवश्यकता नहीं है।
अरदास सिर्फ परमपिता परमेश्वर या अपने गुरू महाराज जी से ही करनी चाहिए। अपनी अर्जी, याचिका सिर्फ उसी के सामने रखनी चाहिए जो उसे पूरा करने में समर्थ हैं, जो सर्वशक्तिमान हो, जो देते हुए हाथ ना खींचे, जो देकर ना पछताये, जिसके पास किसी भी चीज़ की कमी ना हो और ऐसा तो सिर्फ ईश्वर या गुरू ही हो सकता है। जो इन्सान एक से ज्यादा के सामने अपनी अरदास रखते हैं वह दो नावों में सवार होने की कोशिश करते हुए कभी भी अपनी मंज़िल तक नहीं पहुँच सकते। ऐसे व्यक्ति हमेशा दिमाग की उधेड़बुन में डूबे हुए, किसी भी एक सत्ता पर विश्वास नहीं रख सकते व उनका ज़िन्दगी में असफल होना निश्चित है। जबकि एक सच्चा सिख, गुरमुख अपने गुरूपिता पर पूरी श्रद्धा, पूर्ण आत्मसमर्पण व अटूट विश्वास के साथ असम्भव को भी सम्भव कर सकता है। गुरू महाराज जी फ़रमाते हैं :
"सभु किछु तुम ते मागना वडभागी पाए ।
नानक की अरदास प्रभ जीवा गुन गाए।।"
"मै ताणु दीबाणु तूहै मेरे सुआमी मै तुधु आगै अरदासि ।
मै होरु थाउ नाहीं जिसु पहि करउ बेनंती मेरा दुखु सुखु तुझ ही पासि।।"
प्यारी साध संगत जी, अरदास वह ज़बरदस्त अनदेखी शक्ति है जो ज़िन्दगी की सभी समस्याओं का समाधान कर सकती है। जिन्दगी के हर पहलू चाहे वह सांसारिक, व्यवहारिक, आध्यात्मिक या आत्मिक हो उसकी Master Key है। इसलिए मैं आप सभी से विनती करूँगा कि ईश्वर और अपने गुरू महाराज पर पूर्ण विश्वास और आस्था के साथ सेवा और सिमरन करते हुए, शुद्ध हृदय व सच्ची भावना से सबके मंगल व कल्याण की कामना की अरदास करें, अरदास को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाऐं और अपना मनुष्य जीवन सफल करें।
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