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संख्या: 5
प्यारी साध संगत जी,
वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह।
इस अंक में मैं आपके साथ "प्रसाद" पर अपने विचार साँझे करूँगा । |
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प्रसाद प्रशाद या प्रसादम भी कहलाता है। यह ईश्वर व गुरु की मनुष्य को सबसे बड़ी देन है। यह ईश्वर का मनुष्य को बख़्शा हुआ सबसे नायाब व आसानी से मिल सकने वाला उपहार है। ईश्वर व गुरू की मनुष्य के ऊपर कभी भी खत्म न होने वाली कृपा का सबसे बड़ा प्रतीक व उदाहरण है प्रसाद ।
भक्तों के मन्दिरों, देवालयों, गुरूद्वारों व तीर्थ स्थानों पर जाने के विशेषतः दो ही कारण होते हैं। पहला "अपने अराध्य, किसी देवी-देवता या गुरु के दर्शन" व दूसरा "प्रसाद की प्राप्ति" । प्रसाद का प्रचलन भारतीय व हिन्दू परम्परा में आदिकाल से है। जबकि सिक्ख धर्म में लंगर प्रशाद व कड़ाह प्रशाद की परम्परा का आरम्भ श्री गुरू नानक देव जी के जीवन काल व सिक्ख धर्म की आरम्भता से ही हो गया था। हिन्दू व सिक्ख धर्म में प्रसाद खाने की वह वस्तु और वो पदार्थ है जिसको धार्मिक चढ़ावे के रूप में ईश्वर व गुरू को भेंट किया जाता है व बाद में वह भक्तों व संगत में बांट दिया जाता है।
सनातन धर्म के अनुसार आदिकाल से ही पूजा व उपासना, कीर्तन, प्रवचन, हवन व आरती इत्यादि के दौरान भक्त व श्रद्धालु अपनी हैसियत के मुताबिक ईश्वर, अपने अराध्य व गुरू को फल, मीठे चावल, गुड़, दूध, नारियल, मिठाई व अन्य खाद्य-सामग्रियाँ चढ़ाते या भेंट करते हैं व बाद में उसी चढ़ावे को प्रसाद के रूप में सभी भक्तों व श्रद्धालुओं के बीच बांट दिया जाता है। ईश्वर को चढ़ावे के रूप में जल, बेल के पत्ते, फूल, तुलसी व विभूति भी अर्पित की जाती है व बाद में उन्हें भी प्रसाद के रूप में बांट दिया जाता है। यह इस बात का प्रतीक है कि ईश्वर अपने भक्तों से सोने, चाँदी, मानिक, हीरे-जवाहरात, धन या कीमती वस्तुओं की इच्छा नहीं करते, बल्कि सच्चे मन व श्रद्धा से अर्पित किया हुआ जल, फल, फूल, पत्ते व खाने की आम वस्तुओं से भी वह प्रसन्न हो जाते हैं। भक्त द्वारा ईश्वर को भेंट की गयी वस्तु "नैवेद्ध" कहलाती है। उसके बाद ईश्वर, अराध्य, देवता या गुरू द्वारा उस भेंट या चढ़ावे की वस्तु को उनके स्पर्श करने, ग्रहण करने या चखने के बाद "भोग" कहा जाता है। इस भोग को जिसमें अब ईश्वरीय या दैवीय शक्ति आ चुकी है प्रसाद कहा जाता है उसे भक्तों में बांट दिया जाता है व उसकी उपयोगिता के अनुसार जैसे की खाने वाले प्रसाद को खाया, पीने वाले को पिया, वस्त्र को पहना इत्यादि रूप में ग्रहण किया जाता है।
भारतवर्ष में प्रसाद का प्रचलन उतना ही पुराना है जितनी की हमारी सभ्यता | हिन्दू धर्म में अधिकतर शाकाहारी खाद्य पदार्थों का प्रसाद ही प्रचलन में है। हालांकि कहीं कहीं पर तामसिक व मांसाहारी पदार्थों का प्रसाद भी पाया जाता है। आदिकाल से ही भगवान शिव का प्रसाद है विभूति या भभूति । माँ शक्ति का प्रसाद है कुमकुम व भगवान विष्णु, श्री राम व कृष्ण जी का प्रसाद है तुलसी। सिक्ख धर्म में देग / कड़ाह प्रशाद ही गुरू महाराज का प्रसाद है व कड़ाह प्रशाद बनाने, भोग लगाने व बाँटने की मर्यादा व विधि निर्धारित है। सभी को एक समान रूप से कड़ाह प्रशाद का देना यह दर्शाता है कि वाहेगुरू की नज़र में सभी मनुष्य एक समान हैं। कड़ाह प्रशाद यह भी दर्शाता है कि उस वाहेगुरू के घर से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता। प्रसाद का एक और बहुत ही सशक्त रूप है चरणामृत । जिस जल या दूध से ईश्वर या किसी देवी देवता की मूर्ति या उनके चरणों को या किसी गुरू, सन्त, महात्मा के चरणों को धोया जाता है उसे चरणामृत कहते हैं।
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ईश्वर व गुरू का प्रसाद चाहे वह किसी भी रूप में हो भोग लगने के बाद चमत्कारिक रूप से "ईश्वरीय शक्तियों" से परिपूर्ण हो जाता है। भोग लगने के बाद प्रसाद भक्तों व संगत के लिए आशीर्वाद बन जाता है। प्रसाद वह antidote या विष हरने की दवा है जिससे दुख, क्लेश, गरीबी व बीमारी इत्यादि का नाश होता है। प्रसाद मनुष्य का जीवन ही बदल सकता है और बदल भी देता है। हिन्दू व सिक्ख धर्म में इसके अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं। अज्ञानियों में ज्ञान, कमज़ोरों में शक्ति, रोगियों में आरोगता व मुर्दों में जान डाल देता है श्रद्धा और आस्था से ग्रहण किया गया प्रसाद। प्रसाद हर प्रकार के दुख व पापों का नाश करता है। प्रसाद का सही व असली असर उसी व्यक्ति को मिलता है जिसका अपने अराध्य व गुरू पर व उनके प्रसाद पर अटूट विश्वास हो । विश्वासहीन व्यक्ति के लिए तो प्रसाद मात्र एक खाने की ही वस्तु है।
कहते हैं नामदेव अपने ईश्वर पाँडुरँग विठ्ठल को ऐसे शुद्ध मन व श्रद्धा के साथ भोग लगाते थे कि स्वयं विठ्ठल को उनके सामने बैठकर भोजन करना पड़ता था। भगवान श्री राम के पिता महाराज दशरथ को पुत्रकामेष्ठि यज्ञ के बाद जो प्रसाद मिला उसे उनकी रानियों ने जब ग्रहण किया तो उन्हें चार पुत्रों की प्राप्ति हुई। कौन भूल सकता है माता गंगा जी के शुद्ध भाव व सच्चे मन से बनाये गए, सिर पर रख कर, नंगे पैर चलकर ले जाए गये उस पवित्र प्रसाद को जिसे छक कर बाबा बुड्ढा जी ने ऐसा वरदान दिया जिससे सिक्खों के छठे गुरू, श्री हरगोबिंद जी महाराज, मीरी पीरी के मालिक का जन्म हुआ और जिन्होंने सिक्ख धर्म व इस देश के इतिहास को एक नयी दिशा प्रदान की । बाबा बुड्ढा जी की याद में यह पर्व गुरूद्वारा श्री सुखधाम साहिब, अलवर में हर साल जून के महीने में (हाड़ की संग्रांद से अगले शुक्रवार को) बड़े उत्साह, श्रद्धा व भव्य तरीके से मनाया जाता है। अलवर व अन्य स्थानों की संगत बड़े प्रेम व श्रद्धा से मिस्सी और मीठी रोटी व प्याज का प्रसाद अपने घर से लेकर आती है जिसे गुरू महाराज जी को भोग लगाने के बाद सारी संगत में बड़े प्यार और आदर से लंगर प्रशाद के रुप में बांटा जाता है। सच्चे भाव, श्रद्धा व अपने गुरस्थान व प्रसाद पर अटूट आस्था का ही असर है कि गुरू महाराज जी की कृपा से बहुत से श्रद्धालुओं की मन की इच्छायें व शुभकामनायें पूरी होती हैं।
आज के इस भागदौड़ व तेज़ रफ्तार के युग में बहुत से ऐसे लोग हैं जो प्रसाद के महत्व व शक्ति से अनभिज्ञ हैं। जो इसकी महिमा व महत्व से परिचित नहीं हैं वह अनायास ही बहुत कुछ खो रहे हैं। सच्चे सन्तों, महात्माओं व गुरू के द्वारा दिए गये प्रसाद का जाने या अनजाने में किया गया अपमान या बेअदबी एक बहुत ही बड़ी व माफ न की जाने वाली गलती है। आप कुछ दिन अमृतसर की पावन धरती, आनन्दपुर साहिब या हजूर साहिब या वृन्दावन, काशी, अयोध्या या अपने गुरस्थान पर सच्ची श्रद्धा व भक्ति के साथ रहें तो आपको प्रसाद की महिमा, चमत्कार व शक्ति का अंदाज़ा हो जाएगा। अखण्ड विश्वास के साथ ग्रहण किए गये प्रसाद से बहुत सी असाध्य (incurable) बीमारियां ठीक हो जाती हैं, बेऔलादों को औलाद की दातें मिल जाती हैं। बहुत से आस्थावान और श्रद्धा से लिप्त लोगों को मात्र प्रसाद ग्रहण करने से ही कई आत्मिक व आध्यात्मिक अनुभवों की अनुभूति होती है। आज के कलयुग में प्रसाद "रामबाण" है जो मनुष्य के शरीर, मन, सोच व आत्मा को शुद्ध कर देता है। प्रसाद ईश्वरीय वरदान है, गुरु की कृपादृष्टि है, मनुष्य को दैवीय अनुग्रह है। प्रसाद भक्ति, आस्था, श्रद्धा व शक्ति का प्रतीक है। यह ईश्वर व गुरू की भक्तों व संगत पर कभी ना खत्म होने वाली और कभी न रूकने वाली आशीर्वाद की वर्षा है। यह शक्ति, ऊर्जा और तेज का स्त्रोत है। जीवन प्रदान करने वाली संजीवनी है। अगर अंग्रेजी में कहूँ कि "Prasada is a Cure - All and Ideal Pick-Me-Up" तो अतिश्योक्ति न होगी।
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प्रसाद ग्रहण करने से मनुष्य में multiple positive thoughts यानि की अनेकों सकारात्मक विचारों व सोच का भाव उत्पन्न होता है। ऐसी मान्यता है कि मनुष्य ईश्वर को, अपने अराध्य या गुरू को प्रसाद भेंट करके अपनी इच्छा या कार्य की पूर्ति के लिए उनका आशीर्वाद माँगता है व ईश्वर और गुरू महाराज उस प्रसाद को भोग लगाकर भेंटकर्ता की अरदास स्वीकार करते हैं व अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं । चूँकि प्रसाद शुद्ध व पवित्र होता है इसलिए इसे ग्रहण करने वाले सभी व्यक्तियों को ईश्वर व गुरू की कृपा का आशीर्वाद प्राप्त होता है। ऐसी भी धारणा है कि एक भेंटकर्ता की "प्रसाद रूपी भेंट" जब अन्य भक्तों, श्रद्धालुओं व संगत में बांटी जाती हैं तो वह सब भी उसकी इच्छा, मंशा व मनोकामना की पूर्ति के लिए उसकी अरदास में शामिल हो जाते हैं। वह प्रसाद जितना ज्यादा से ज्यादा भक्तों व संगत में बांटा जाता है, उतने ही ज्यादा लोगों की अरदासें भेंटकर्ता की अरदास में शामिल हो जाती हैं और उतनी ही जल्दी वह व्यक्ति/ अरदासी ईश्वरीय एवं गुरू कृपा का पात्र बनता है।
जितना विश्वास व श्रद्धा प्रसाद को ग्रहण करने वाले में होनी चाहिए उतनी ही श्रद्धा व भक्ति उसे बनाने, लाने व चढ़ाने वाले में भी होनी चाहिए। मेरा मानना है कि प्रसाद बनाने, लाने व भोग लगाने वाले व्यक्ति के "भाव" बहुत महत्वपूर्ण हैं। कहते हैं एक सच्चे व श्रद्धावान भक्त के द्वारा भोग लगाए गये प्रसाद को ग्रहण करने से बड़े-बड़े नास्तिक व्यक्ति भी आस्तिक हो जाते हैं। बहुत से विद्वानों का मत है कि जो व्यक्ति जिस भाव से प्रसाद बनाता है या भेंट करता है उसकी मानसिकता व विचार उस प्रसाद को ग्रहण करने वालों को भी प्रभावित करते हैं। प्रसाद शुद्धता व पवित्रता का प्रतीक है। यही कारण है कि आज भी प्राचीन व बड़े-बड़े मन्दिरों में केवल ब्राह्मणों द्वारा ही प्रसाद बनाया जाता है। सिक्ख धर्म मे भी कड़ाह प्रशाद बनाने की मर्यादा निर्धारित कर दी गयी है जैसे कि कड़ाह प्रशाद बनाने वाले सेवादार का नहा धोकर बिल्कुल साफ सुथरा होना, मुँह सुच्चा होना, ढका हुआ सर व हो सके तो मुँह भी कपड़े से ढका होना व कड़ाह प्रशाद बनाते हुए केवल गुरबाणी या गुरमन्त्र का उच्चारण करना ।
आध्यात्मिक व आत्मिक तौर पर एक और प्रसाद है जो कि बहुत ही उच्च कोटि एवं श्रेणी का है और वह है ईश्वर और गुरू की कृपा का पात्र बनना । यह प्रसाद ईश्वर और गुरू अपने भक्त या शिष्य की सेवा, सिमरन, भक्ति, श्रद्धा या अटूट विश्वास पर रीझ कर उस पर बरसाते हैं। इस ईश्वरीय व गुरूकृपा रूपी प्रसाद के बाद भक्त या शिष्य परमधाम की प्राप्ति करता है व उसे किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा या इच्छा नहीं रहती ।
मेरा यह भी मानना है कि प्रसाद ग्रहण करने वाले को शुद्ध भाव व पूरी आस्था से प्रसाद लेना चाहिए। प्रसाद लेते समय अपना सिर, गर्दन व शरीर को झुका लेना चाहिए। प्रसाद दोनों हाथों से लेना चाहिए और अगर सम्भव हो तो बैठ कर लेना चाहिए । अगर प्रसाद बांटने वाले से प्रसाद गिर जाए तो उसे उठा लेना चाहिए। प्रसाद हमेशा पूरा ग्रहण या खत्म करना चाहिए व किसी भी हालत में झूठा नहीं छोड़ना चाहिए।
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प्यारी साध संगत जी, उम्मीद करता हूँ कि आप सभी प्रसाद की महिमा व महत्व से भली भाँति परिचित होंगे या हो गये होंगे व आप सब बहुत ही आदर सत्कार, शुद्ध भाव व दृढ़ आस्था से प्रसाद को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाएंगे और दूसरों को भी इसके महत्व व महिमा से वाकिफ करवायेंगे। मैं गुरू महाराज जी से अरदास करता हूँ कि आप सभी को सेवा व सिमरन की दात मिले और आपका जीवन सफल हो।
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वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह। गुरसंगत का दास संतरेन डाॅ० हरभजन शाह सिंघ, गद्दी नशीन |
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