संदेश

 

संख्या: 9

 

प्यारी साध संगत जी,

वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह।

इस संदेश में हम निमरता पर चर्चा करेंगे।

निमरता  

आपस कउ जो जाणै नीचा। सोऊ गनीऐ सभ ते ऊचा।।

गुरू अर्जनदेव जी महाराज द्वारा रचित इस एक पंक्ति में निमरता का सारा सार छुपा हुआ है। निमरता यानि कि विनम्रता, नम्रता, शालीनता, humility, modesty. यह इंसान के विनम्र होने की वह अवस्था है जिसमें वह अपने आप को दूसरों से बेहतर नहीं समझता । निमरता जन्म देती है और दर्शाती है निमाणेपन को, नीचे होने को, सब कुछ जानते हुए और करते हुए भी अपने आपको दूसरों से कम और नीचा जानने को, किसी की बराबरी न करने को, औरों के सामने अपने आप को अज्ञानी या कम पढ़ा-लिखा और तुच्छ समझने को। निमरता का दुश्मन और बिल्कुल उलट है हौउमै यानि कि pride, अहंकार, अभिमान और arrogance, अकड़, अक्खड़पन, घमंड। जहाँ निमरता इंसान की सबसे बड़ी ताकत है वहीं सबसे बड़ा दुश्मन है हौउमै। निमरता वह गुण है, वह गहना है जिसको उतारने या त्यागने के बाद देवता राक्षस के समान और जिसको अपनाने या धारण करने के बाद एक आम इंसान देवताओं के बराबर हो जाता है। हौउमै आत्मिक कैंसर है जो इंसान के गुणों, अच्छाईयों और उसके व्यक्तित्व (personality) का पूरा नाश कर देता है। ज्ञान और बुद्धि को खा जाता है और रावण जैसे महाज्ञानी, महापंडित, भक्त और महाबलशाली को खोखला कर महापापी बनाकर उसके नाश की वजह बनता है। वहीं निमरता श्री रामचन्द्र जी को जिन्होंने एक इंसान के रूप में जन्म लिया उन्हें भगवान का दर्जा दिलाकर "आदर्श" के रूप में जन्मो-जन्मांतर तक पूज्य बना देती है। श्री रामचन्द्र जी एक राजकुमार होते हुए भी एक आम शिष्य की तरह गुरू की आज्ञा से जंगलों में गए और वहाँ धर्म की रक्षा की, पिता के दिए हुए वचन का पालन करते हुए राजसी सुख छोड़कर वनवास को चले गए, नीची जाति की भीलनी के प्यार और भक्ति से भरे हुए झूठे बेर खाए और सीता जी को वापस लाने और रावण रूपी अधर्म का नाश करने के लिए वानरों और भालूओं से दोस्ती की और उनकी मदद ली। उनके जीवन का हर पहलू निमरता से भरा हुआ है। बाणी फरमान करती है :

सुखी बसै मसकीनीआ आपु निवारि तले।

बडे बडे अहंकारीआ नानक गरबि गले।।

 

कहते हैं निमरता और ज्ञान (knowledge) एक दूसरे के पूरक हैं, they complement each other. इंसान निमरता को बढ़ाए बिना ज्ञान नहीं बढ़ा सकता। ज्ञान के लिए ज़रूरत है 'सीखने की चाह और निमरता से भरा हुआ इंसान ही अपने को अज्ञानी, कम पढ़ा-लिखा, कम जानकार समझता है और ज़्यादा सीखने, पढ़ने-लिखने और समझने की चाह रखता है। निमाणे इंसान को हाथ जोड़कर, झुककर, माँग कर, मदद लेकर या किसी भी तरह से ज्ञान हासिल करने में कोई शर्म महसूस नहीं होती। जबकि हौउमै से भरा इंसान हमेशा यह समझता है कि उसको सब कुछ आता है, मालूम है और वह सब कुछ पा चुका है। इंसान का जितना ज्यादा ज्ञान बढ़ता है उसको उतनी ही ज्यादा निमरता की ज़रूरत पड़ती है। बरगद का पेड़ ज्यादा झुकने के कारण ही और पेड़ों से ज़्यादा और बेहतर छाया और ठंडक दे पाता है। निमरता और ज्ञान चीनी और मिठास की तरह हैं जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता। निमरता का संबंध excellence यानि कि श्रेष्ठता के साथ भी है। पिछले कुछ वक्त से मैं आपको लगातार यह भी बता रहा हूँ कि जिंदगी के हर पहलू में, हर काम में श्रेष्ठता यानि कि excellence प्राप्त करने की कोशिश करना भी हमारा उद्देश्य (mission) होना चाहिए। निमरता और श्रेष्ठता दोनों सगी बहनें हैं। निमरता से भरा हुआ एक निमाणा इंसान ही हर काम को बहुत अच्छा अंजाम दे सकता है और श्रेष्ठता, excellence का मतलब है कामयाबी की गारन्टी यानि कि निमरता से ज्ञान, श्रेष्ठता और आखिर में कामयाबी का मिलना निश्चित है। ईश्वर के दरबार से हौउमै से लदा हुआ इंसान अक्सर खाली हाथ और निमरता से झुका हुआ इंसान अपनी झोली दातों से भरकर आता है।

मरि मरि जीवै ता किछु पाए। गुरपरसादी हरि मंनि वसाए।।

अक्सर निमरता को कमज़ोरी (weakness) समझा जाता है। लोग निमाणे इंसान को ज़्यादातर कमजोर, मजबूर या low self-esteem, कम स्वाभिमानी समझने की बहुत बड़ी भूल और गलती कर बैठते हैं। असल में निमरता तो ताकत का प्रतीक (symbol) है और इसकी सबसे बढ़िया मिसाल हैं महात्मा गाँधी। वो दुबला पतला, धोती पहनने वाला इंसान, निमाणापन और निमरता जिसकी पहचान थी, उसने बिना कोई हथियार उठाए सिर्फ अहिंसा, सच्चाई, मज़बूत इच्छा-शक्ति और पक्के इरादों से हमारे देश को अंग्रेज़ों की 200 साल की गुलामी से आज़ाद करवा दिया। रहीमदास जी कहते हैं :

रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभू की धाक।

दांत दिखावत दी हयै, चलत घिसावत नाक।।

हाथी जो सभी जीवों में सबसे ताकतवर है वह भी ईश्वर की शक्ति को मानते हुए अपनी नाक, अपनी सूंढ़ को ज़मीन पर रगड़ते हुए चलता है। यह इस बात का सबूत है कि ताकतवर इंसान को हमेशा झुक कर, निमाणे बन कर जीना चाहिए। जिसमें निमरता नहीं उसकी ताकत हौउमै से भरी हुई है और बेकार है। कबीरदास जी फरमाते हैं :

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर ।

पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।।

ऐसी ताकत जो अकड़ और अहंकार का प्रतीक बन जाए उसके गुण और फल भी किसी काम के नहीं होते। गुरू अर्जनदेव जी महाराज फरमाते हैं :

गरीबी गदा हमारी। खंना सगल रेनु छारी।।

सिख धर्म में पाँच गुणों (virtues) को प्रधानता दी गयी है। सत (सच्चाई, truth), संतोख (संतोष, contentment), दया (रहम, compassion) प्यार (प्रेम, love) और निमरता। अगर गौर करें तो हम पायेंगे कि गुरू नानकदेव जी महाराज ने सिख धर्म की नींव निमरता और गरीबी पर ही रखी थी। गुरू नानकदेव जी महाराज निमरता के बेताज शहंशाह थे और उनकी जिंदगी का हर पहलू निमरता से लबालब भरा हुआ है और इस बात में भी कोई शक नहीं है कि "He was an incarnation of divine love and a Prophet of true humility"; "वह ईश्वरीय प्रेम के अवतार और निमरता के पैगम्बर थे।" उन्होंने सच्चाई, गरीबी, सादगी और निमरता को अपना गहना और नीची जाति के एक हिन्दू भाई बाला और नीची जाति के एक मुस्लिम भाई मरदाना को अपना हमजोली बनाया। गरीबों, पीड़ितों, नीची जाति, out caste, अछूतों, दलितों, मानसिक और आत्मिक रोगियों के वो महान मसीहा थे।

नीचा अंदर नीच जाति नीची हू अति नीचु।

नानक तिन कै संगि साथि वडिआ सिउ किआ रीस।।

गुरू नानकदेव जी महाराज के दरबार और हज़ूरी में हौउमै की जगह ना तो आज से 500 साल पहले थी और ना ही आज भी है। उनकी तीन महान सीखों और उपदेशों में से एक "वंड छकना" निमरता का ही प्रतीक है। उनकी शुरू की गयी लंगर की प्रथा निमरता की सबसे बड़ी मिसाल है। एक पंगत में बराबर होकर बिना ऊँच-नीच, जाति, उमर या भेदभाव के बैठकर एक समान एक ही लंगर छकना, हर इंसान को निमाणे होने की सीख देता है।

सिरु नीवा नीवाणु वासु पाणी अंदरि परउपकारा।

निव चलै सो गुरू पिआरा।।

गुरू नानकदेव जी महाराज से गुरू गोबिन्द सिंह जी महाराज तक हर गुरु महाराज जी का जीवन निमरता की अनगिनत मिसालों से भरा पड़ा है। तिहतर साल के बुजुर्ग गुरु अमरदास जी महाराज को गुरु अंगददेव जी महाराज के बेटे दातू जी ने जब लात मारकर आसन से नीचे गिरा दिया तो बजाए नाराज या गुस्सा होने के महाराज जी ने यह कहकर कि मेरी सख़्त हड्डियों से आपके नरम चरणों को चोट पहुंची होगी उन्होंने अपनी महान निमरता और गुरू नानकदेव जी महाराज की जोत का सच्चा वारिस होने का सबूत पेश कर दिया। जब बाबा श्रीचंद जी ने गुरु रामदास जी महाराज से पूछा कि आपने इतनी बड़ी दाड़ी क्यों रखी है तो उनका जवाब था कि आप जैसे संतो के चरणों की धूल साफ करने के लिए। उनकी निमरता की इस असीम मिसाल ने ना सिर्फ बाबा श्रीचंद जी को उनके सामने नतमस्तक कर दिया बल्कि लाखों-करोड़ों इंसानों में भी निमरता का जज्बा पैदा कर दिया। जब काबुल से गुरू अर्जनदेव जी महाराज के दर्शन करने अमृतसर आयी हुई संगत को यह पता चला कि बीती रात जिस सिक्ख और उसकी पत्नी ने पूरी रात उनकी सेवा की, वही सिक्ख जो अब बाहर बैठकर उनके जोड़ों की देखभाल कर रहा है वो ही गुरू अर्जनदेव जी महाराज हैं तो उनकी आत्मा दहल गयी। गुरू महाराज जी की अपार निमरता यहीं खत्म नहीं होती। माता गंगा जी को बेटे की प्राप्ति की ख़्वाहिश जानकर गुरू महाराज जी का निमाणा बनकर यह कहना कि यह दात तो उन्हें एक सच्चे गुरसिक्ख बाबा बुड्ढा जी से मिल सकती है यह दर्शाता है कि वह बाणी के साथ साथ निमरता के भी समुन्दर थे। पहली बार माता गंगा जी का गुरू माता के रूप में बाबा बुड्ढा जी के पास जाना और खाली हाथ लौटना और अगले दिन निमाणी बन कर, निमरता से लिप्त होकर अपने हाथों से लंगर बनाना, लंगर को सर पर रखकर नंगे पैर चलकर बाबा बुड्ढा जी के पास जाकर उन्हें लंगर छकाना और बाबा जी से गुरू हरगोबिन्द जी महाराज की महान दात लेकर आना निमरता के महत्व और इसकी ताकत को दर्शाता है। यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि बिना निमरता के कोई भी गुरू का सच्चा सिक्ख नहीं बन सकता। एक बात और पक्के तौर पर साबित होती है कि गुरु अंगद देव जी महाराज, गुरू अमरदास जी महाराज, गुरू रामदास जी महाराज और गुरू अर्जन देव जी महाराज सभी गुरूनानक देव जी महाराज की गद्दी के सच्चे वारिस निमरता और निमाणेपन के अथाह समुन्दर थे। उनके बाद में गुरू हरगोबिन्द जी महाराज, गुरू हरिराय जी महाराज, गुरू हरिक्रिशन जी महाराज, गुरु तेग बहादुर जी महाराज और गुरू गोबिन्द सिंह जी महाराज ने अपने जीवन में यह साबित कर दिया कि वे सब भी निमाणेपन और निमरता की महान मूरत और लाजवाब मिसाल थे। बचपन में एक बार गलती से जब सातवें पातशाह गुरु हरिराय जी महाराज के चोगे में फंसकर एक फूल टूट गया तो उन्हें इतना दुःख हुआ कि जिन्दगी भर वे अपने चोगे को संभाल कर चले और फिर किसी पत्ते या फूल को कभी नहीं तोड़ा। बल्कि इस घटना ने उन्हें जिन्दगी भर कुदरत का प्रेमी और रक्षक (Preserver) बना दिया। इसी घटना से प्रेरित होकर बाद में उन्होंने दवाइयों के पौधों और जड़ी-बूटियों की एक बगिया बनाई जो कि नौलखा बाग के नाम से मशहूर हुई। गुरू गोबिन्द सिंह जी महाराज का अपने हाथों से खालसा सजाये हुए पाँच प्यारों से निमाणा बनकर, हाथ जोड़कर, झुक कर विनती करना कि वो उन्हें अमृत छकाकर खालसा सजाएँ पूरी दुनिया को बताता है कि वो महान गुरू जो तीनों लोक के मालिक थे, सिर्फ उनकी बुद्धि, मन और स्वभाव ही नहीं बल्कि आत्मा भी पूरी तरह से निमरता में डूबी हुई थी। सिक्खी में निमरता को वाहेगुरू से भीख मांगने वाला बर्तन या भिक्षा पात्र माना गया है जो कि जितना बड़ा और गहरा होगा उतना ही ज़्यादा असरदार और कारगर होगा। बाणी फरमाती है कि गुरमुख हमेशा निमाणा बनकर, गुरू के प्यार में डूबकर, सिमरन के द्वारा सच्ची साधना करके आत्मिक सुख और सच्चे आनन्द की प्राप्ति करते हैं।

भाउ भगति करि नीचु सदाए। तउ नानक सोखंतरु पाए।।

 

निमरता का मतलब सिर्फ मीठा बोलना या बाहरी मीठा व्यवहार ही नहीं है क्योंकि अगर इंसान के अंदर ईर्ष्या, द्वेष, बराबरी या रीस, बदले की भावना हो या दूसरों के लिए ममता, रहम, कल्याण या दर्द न हो तो वह निमरता से बिल्कुल खाली है। निमरता के बहुत से लक्षण और मतलब हैं। निमरता है अपनी कामयाबी, काबलियत, ताकत, अच्छाई या गुणों और धन-दौलत का दिखावा या बखान ना करना । निमरता का मतलब है अपनी सीमाओं (limitations) को जानना और उनके अंदर रहना । निमरता का मतलब है अपनी अच्छाईयों, गुणों और ताकत (strength) के बारे में हल्का फुल्का ज्ञान (modest or moderate estimation) रखना। अपनी कमियों और कमजोरियों को पूरी तरह से जानना और उन्हें छुपाने या कुछ ना करने की बजाए उन पर मेहनत, ईमानदारी और मजबूती के साथ काम करके उन्हें दूर करना। कहते हैं कि गलती इंसान से ही होती है लेकिन निमाणे बनकर गलती को मानना और उसे दूर करने की कोशिश करना निमरता है। अपनी शिक्षा, ज्ञान और तजुर्बे को दूसरों से कम समझना और ज़्यादा सीखने की चाह रखना निमरता है।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।

जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।

अपने अहम और हौउमै को मारकर, सहज और शान्ति से अपने आत्म-सम्मान (self respect) और सम्मान (dignity) को बनाए रखना भी निमरता है। निमरता का मतलब है हर चीज़ के लिए ईश्वर के द्वारा तय किए गये सही वक्त का इन्तज़ार करना और संयम और हिम्मत न हारना, अपने गुरू और ईश्वर का हर हाल में शुक्रिया अदा करना और अगर कोई कामना पूरी न हो या दात न मिले या कोई काम ना बने तो निराश या गुस्से होकर अपना दर ना छोड़ना बल्कि अपने हौंसले को बरकरार रखकर अपनी सेवा और सिमरन बढ़ा देना भी निमरता है। मदर टेरेसा का कहना था कि एक निमाणे इंसान को ना तो प्रशंसा से और ना ही आलोचना से फर्क पड़ता है। निमरता का मतलब है दूसरों को ध्यानपूर्वक और अच्छी तरह से सुनना; दूसरों के विचार और मतों का जहाँ तक हो सके आदर करना; औरों पर जबरदस्ती अपनी राय न थोपना; कम बोलना और ज्यादा सुनना और सबकी कद्र करना। मैं अक्सर यह कहता हूँ कि meetings या बैठक में अगर कोई इंसान ऊँचा-ऊँचा बोलकर या दूसरों की बात या राय को बिना सोचे समझे नकार कर अपनी बात या राय मनवाना या थोपना चाहता है तो वह एक खोखला और कमज़ोर इंसान है और उसका अहम ही उसका सबसे बड़ा दुश्मन है। जिंदगी का असली सुख सिर्फ खुद का सही होने या सबसे ऊपर पहुँचने में नहीं है, बल्कि निमाणा बनकर कामयाबी के रास्ते पर चलते हुए दूसरों की जहाँ तक हो सके मदद करने में और उन्हें भी कामयाब बनाने में है। निमरता से भरे हुए निमाणे लोग हमेशा सरबत का भला चाहते हैं।

निमरता के अनेक फायदे हैं। यह हौउमै रूपी ज़हर का सबसे बड़ा antidote यानि कि प्रतिकारक, काट करने वाली, नाश करने वाली है। यह वह बर्तन है जिसमें ईश्वर दातें देने से कभी पीछे नहीं हटता। यह दुश्मनों को दोस्त, और दोस्तों को संबंधी और सहयोगी (ally) बना देती है। यह कामयाबी की सौ फीसदी (100%) गारन्टी है। निमरता से ज्ञान का आना और टिकना और इंसान का गुरमुखता की ओर बढ़ना लगभग तय है। निमरता इंसान की कमियों को दूर और मन और इच्छाशक्ति को मज़बूत करने में बहुत मदद करती है। दिमाग में अच्छे, ताकतवर और कल्याणकारी विचारों को पैदा करती है। निमरता से इंसान का व्यक्तित्व (personality) निखरता है और उसकी मानसिकता (attitude) और आचरण (conduct) में मँझापन या maturity आती है। संक्षेप में कहूँ तो निमरता हर धर्म, हर समाज में पाया जाने वाला वह रास्ता है जिस पर चलकर हर शख़्स एक अच्छा इंसान बन सकता है, मानसिक और आत्मिक शान्ति को प्राप्त कर हमेशा अपने गुरू और ईश्वर को अपने पास और साथ महसूस कर सकता है।

सभ ते नीचु आतम करि मानउ मन महि इहु सुखु धारउ।

लेकिन एक बात हमेशा याद रखें और सावधान रहें कि अगर निमाणे इंसान को यह अहसास हो जाए कि वह निमाणा है, निमरता से भरा हुआ है तो हौउमै उसकी निमरता पर हावी होना शुरू कर देता है और उसकी निमरता का कम होना, खत्म होना तय है। एक लेखक लिखता है कि मेरे दादा को निमरता का एक मैडल मिला और उन्होंने उसे पहनना और दूसरों को दिखाना शुरू कर दिया तो कुछ ही समय में अहंकार ने उन्हें आ घेरा और जल्द ही उनकी सारी निमरता जाती रही।

प्यारी साध संगत जी, मैं निमरता को हर गुण की जननी, माँ मानता हूँ। अगर निमरता है तो बाकी गुण, अच्छाईयाँ, virtues समय के साथ अपने आप आ जाते हैं। दुनिया की हर नदी आखिर में समुन्दर में समा जाती है क्योंकि समुन्दर उनसे नीचा होता है और यही उसकी ताकत है। इंसान के शरीर को अगर हम ऊपर से नीचे तक परखें तो पायेंगे कि शरीर का सबसे नीचा अंग उसके पाँव हैं। इन्हीं नीचे "पाँवों" के सामने हौउमै से भरे हुए सिर, अहंकार से अकड़ी हुई गर्दनें और ज्ञान से लबालब भरे हुए दिमाग भी झुकते हैं और इन्हीं पाँवों को, पैरों को, चरणों को इज्जत से छुआ जाता है। यहाँ तक कि पाँवों में पहनने वाली जूती और जूते को भी चरण पादुका मानकर उनकी पूजा की जाती है। आप सब भी निमरता को, निमाणेपन को अपनी ताकत बनाएँ। पेड़ पर जितने ज्यादा फल होते हैं वह उतना झुकता चला जाता है। आप भी निमरता और उसके फल रूपी आने वाले बाकी गुणों को अपने जीवन में पूरी तरह से ढाल लें। मैं गुरू महाराज जी से हाथ जोड़कर अरदास करता हूँ कि हमारी सुबह-शाम की जाने वाली अरदास, “मन नींवा मत उच्ची" की दात हम सबको बख्शें ।

मैं हमेशा आप सभी को “सेवा और सिमरन " करने के लिए बहुत जोर देता हूँ। याद रखिए, निमरता वह सवारी है जिस पर सवार होकर सेवा और सिमरन की रफ्तार आपकी सोच से कहीं ज़्यादा हो जाएगी और जिंदगी रूपी सफर बहुत आसान और दिलचस्प हो जाएगा ।

रोसु न काहू संग करहु आपन आपु बीचारि।
होइ निमाना जगि रहहु नानक नदरी पारि।।

 

वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह।
गुरसंगत का दास
संतरेन डाॅ० हरभजन शाह सिंघ, गद्दी नशीन